Wednesday, June 27, 2012

अपूर्ण होकर भी पूर्ण है श्रीजगन्नाथ जी




चार प्रमुख धामों में से एक, उड़ीसा के पूर्वी समुद्रतट पर स्थित जगन्नाथपुरी के गुंडीचा मंदिर में श्रीजगन्नाथजी का अधूरा स्वरूप दिखाई देता है, जो वास्तव में हमें पूर्णता की प्रेरणा देता है। लौकिक दृष्टि से भले ही उनका विग्रह (मूर्ति) अधूरा दिखता हो, परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से वे पूर्ण परब्रहृम हैं। उनके इस विलक्षण रूप से प्रेरणा मिलती है कि हमें ईश्वर ने जो कुछ भी दिया है, उसके संपूर्ण सदुपयोग से हम सफलता प्राप्त कर सकते हैं। हम प्राय: अपनी असफलता का दोष ईश्वर पर मढ़ देते हैं कि यदि हमारे पास यह होता, तो हम ऐसा कर देते। जबकि सत्य यह है कि इस प्रकृति में ईश्वर के अलावा हर कोई अपूर्ण ही है। फिर भी जिन लोगों ने अपने उपलब्ध साधनों का सदुपयोग किया, उन्होंने बड़ी उपलब्धियां अर्जित कीं।


अत: हमें ईश्वर ने जो कुछ भी दिया है, उसके लिए हमें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए तथा जो नहीं मिला, उस पर हमारी दृष्टि नहीं होनी चाहिए। जो स्वयं कर्मठ और दृढ़ संकल्पवान होते हैं, वे अपनी कमियों को भी पूर्णता में बदल देते हैं। भगवान जगन्नाथ का यह स्वरूप प्रेरणा देता है कि हम ईश्वर द्वारा प्रदत्त ऊर्जा का सही विनियोजन करके लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।


भगवान जगन्नाथ का श्रीविग्रह (मूर्ति) लकड़ी का बना है तथा अधूरा दिखता है। उनके हाथ पूरे नहीं बने हैं। मुखमंडल भी पूर्णतया निर्मित नहीं है। सामान्यत: मान्यता के अनुसार अंगहीन देव-प्रतिमा की पूजा नहीं होती है, परंतु श्रीजगन्नाथजी इसके अपवाद हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार द्वापर में माता रोहिणी द्वारा ब्रज-लीला के गोपी-प्रेम-प्रसंग सुनाने और उन्हें श्रीकृष्ण और बलराम द्वारा अचानक सुन लेने से श्रीकृष्ण, बलरामजी और सुभद्राजी की देह द्रवित हो गई थी। तब भगवान श्रीकृष्ण ने नारदजी के अनुरोध पर कहा था कि कलियुग में दारुविग्रह (लकड़ी की मूर्ति) में वे तीनों इसी रूप में प्रतिष्ठित होंगे।


मान्यता है कि जहां आज मंदिर है, वहां पहले नीलाचल पर्वत था, जहां नीलमाधव की मूर्ति थी। एक कथा के अनुसार, मालवदेश का राजा इंद्रद्युम्न नीलमाधव के दर्शन करने वहां पहुंचा। लेकिन तब तक पर्वत भूमिगत हो चुका था। इंद्रद्युम्न को एक दिन समुद्र में एक बहुत बड़ा लकड़ी का टुकड़ा दिखा। राजा ने उससे देव-मूर्ति बनवाने का निश्चय किया। देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा वृद्ध बढ़ई के रूप में वहां पहुंच गए। उन्होंने मूर्ति बनाने का काम इस शर्त पर शुरू किया कि जब तक वह मूर्ति-निर्माण करें, तब तक कोई अंदर न आए। लेकिन रानी के दबाव पर राजा इंद्रद्युम्न ने भवन का द्वार खुलवा दिया। वहां श्रीकृष्ण, बलरामजी और सुभद्राजी की अधूरी प्रतिमाएं पड़ी थीं। इन प्रतिमाओं को वहां प्रतिष्ठित कर दिया गया। जिस भवन में इन मूर्तियों का निर्माण हुआ था, उस स्थान पर आज गुंडीचा मंदिर है। प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को श्रीजगन्नाथ, श्रीबलभद्र और सुभद्राजी निजमंदिर से बाहर निकल कर, तीन पृथक रथों पर आरूढ़ होकर गुंडीचा मंदिर जाते हैं। यहां एक सप्ताह प्रवास करने के उपरांत ही तीनों देव-विग्रह वापस निज मंदिर पहुंचते हैं।
साभार : दैनिक जागरण

2 comments:

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