Wednesday, November 18, 2015

मोढ़ेरा के विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर



मोढ़ेरा के विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर, जो अहमदाबाद से तकरीबन सौ किलोमीटर की दूरी पर पुष्पावती नदी के तट पर स्थित है।

माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण सम्राट भीमदेव सोलंकी प्रथम (ईसा पूर्व 1022-1063 में) ने करवाया था। इस आशय की पुष्टि एक शिलालेख करता है जो मंदिर के गर्भगृह की दीवार पर लगा है, जिसमें लिखा गया है- 'विक्रम संवत 1083 अर्थात् (1025-1026 ईसा पूर्व)।'

यह वही समय था जब सोमनाथ और उसके आसपास के क्षेत्रों को विदेशी आक्रांता महमूद गजनी ने अपने कब्जे में कर लिया था। गजनी के आक्रमण के प्रभाव के अधीन होकर सोलंकियों ने अपनी शक्ति और वैभव को गँवा दिया था। सोलंकी साम्राज्य की राजधानी कही जाने वाली 'अहिलवाड़ पाटण' भी अपनी महिमा, गौरव और वैभव को गँवाती जा रही थी जिसे बहाल करने के लिए सोलंकी राज परिवार और व्यापारी एकजुट हुए और उन्होंने संयुक्त रूप से भव्य मंदिरों के निर्माण के लिए अपना योगदान देना शुरू किया।

सोलंकी 'सूर्यवंशी' थे, वे सूर्य को कुलदेवता के रूप में पूजते थे अत: उन्होंने अपने आद्य देवता की आराधना के लिए एक भव्य सूर्य मंदिर बनाने का निश्चय किया और इस प्रकार मोढ़ेरा के सूर्य मंदिर ने आकार लिया। भारत में तीन सूर्य मंदिर हैं जिसमें पहला उड़ीसा का कोणार्क मंदिर, दूसरा जम्मू में स्थित मार्तंड मंदिर और तीसरा गुजरात के मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर।


शिल्पकला का अद्मुत उदाहरण प्रस्तुत करने वाले इस विश्व प्रसिद्ध मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि पूरे मंदिर के निर्माण में जुड़ाई के लिए कहीं भी चूने का उपयोग नहीं किया गया है। ईरानी शैली में निर्मित इस मंदिर को भीमदेव ने दो हिस्सों में बनवाया था। पहला हिस्सा गर्भगृह का और दूसरा सभामंडप का है। मंदिर के गर्भगृह के अंदर की लंबाई 51 फुट और 9 इंच तथा चौड़ाई 25 फुट 8 इंच है।

मंदिर के सभामंडप में कुल 52 स्तंभ हैं। इन स्तंभों पर बेहतरीन कारीगरी से विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों और रामायण तथा महाभारत के प्रसंगों को उकेरा गया है। इन स्तंभों को नीचे की ओर देखने पर वह अष्टकोणाकार और ऊपर की ओर देखने पर वह गोल दृश्यमान होते हैं।

इस मंदिर का निर्माण कुछ इस प्रकार किया गया था कि जिसमें सूर्योदय होने पर सूर्य की पहली किरण मंदिर के गर्भगृह को रोशन करे। सभामंडप के आगे एक विशाल कुंड स्थित है जिसे लोग सूर्यकुंड या रामकुंड के नाम से जानते हैं।

अलाउद्दीन खिलजी ने अपने आक्रमण के दौरान मंदिर को काफी नुकसान पहुँचाया और मंदिर की मूर्तियों की तोड़-फोड़ की। वर्तमान में भारतीय पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को अपने संरक्षण में ले लिया है।

पुराणों में भी मोढ़ेरा का उल्लेख: स्कंद पुराण और ब्रह्म पुराण के अनुसार प्राचीन काल में मोढ़ेरा के आसपास का पूरा क्षेत्र 'धर्मरन्य' के नाम से जाना जाता था। पुराणों के अनुसार भगवान श्रीराम ने रावण के संहार के बाद अपने गुरु वशिष्ट को एक ऐसा स्थान बताने के लिए कहा जहाँ पर जाकर वह अपनी आत्मा की शुद्धि और ब्रह्म हत्या के पाप से निजात पा सकें। तब गुरु वशिष्ठ ने श्रीराम को 'धर्मरन्य' जाने की सलाह दी थी। यही क्षेत्र आज मोढ़ेरा के नाम से जाना जाता है।

Tuesday, November 3, 2015

CHAMBA - चंबा (हिमाचल)

चंबा भारत के हिमाचल प्रदेश प्रान्त का एक नगर है। हिमाचल प्रदेश का चंबा अपने रमणीय मंदिरों और हैंडीक्राफ्ट के लिए सर्वविख्यात है। रवि नदी के किनारे 996 मीटर की ऊंचाई पर स्थित चंबा पहाड़ी राजाओं की प्राचीन राजधानी थी। चंबा को राजा साहिल वर्मन ने 920 ई. में स्थापित किया था। इस नगर का नाम उन्होंने अपनी प्रिय पुत्री चंपावती के नाम पर रखा। चारों ओर से ऊंची पहाड़ियों से घिरे चंबा ने प्राचीन संस्कृति और विरासत को संजो कर रखा है। प्राचीन काल की अनेक निशानियां चंबा में देखी जा सकती हैं।

चंपावती मंदिर


यह मंदिर राजा साहिल वर्मन की पुत्री को समर्पित है। यह मंदिर शहर की पुलिस चौकी और कोषागार भवन के पीछे स्थित है। कहा जाता है कि चंपावती ने अपने पिता को चंबा नगर स्थापित करने के लिए प्रेरित किया था। मंदिर को शिखर शैली में बनाया गया है। मंदिर में पत्थरों पर खूबसूरत नक्काशी की गई है और छत को पहिएनुमा बनाया गया है।

लक्ष्मीनारायण मंदिर


यह मंदिर पांरपरिक वास्तुकारी और मूर्तिकला का उत्कृष्‍ट उदाहरण है। चंबा के 6 प्रमुख मंदिरों में यह मंदिर सबसे विशाल और प्राचीन है। कहा जाता है कि सवसे पहले यह मन्दिर चम्बा के चौगान में स्थित था परन्तु बाद में इस मन्दिर को राजमहल (जो वर्तमान में चम्बा जिले का राजकीय महाविद्यालय है) के साथ स्थापित कर दिया गया। भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर राजा साहिल वर्मन ने 10 वीं शताब्दी में बनवाया था। यह मंदिर शिखर शैली में निर्मित है। मंदिर में एक विमान और गर्भगृह है। मंदिर का ढांचा मंडप के समान है। मंदिर की छतरियां और पत्थर की छत इसे बर्फबारी से बचाती है।

भूरी सिंह संग्रहालय


यह संग्रहालय 14 सितंबर 1908 ई. को खुला था। 1904-1919 तक यहां शासन करने वाले राजा भूरी सिंह के नाम पर इस संग्रहालय का नाम पड़ा। भूरी सिंह ने अपनी परिवार की पेंटिग्स का संग्रह संग्रहालय को दान कर दिया था। चंबा की सांस्कृतिक विरासत को संजोए इस संग्रहालय में बसहोली और कांगड़ा आर्ट स्कूल की लघु पेंटिग भी रखी गई हैं।

भंडाल घाटी


यह घाटी वन्य जीव प्रेमियों को काफी लुभाती है। यह खूबसूरत घाटी 6006 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह घाटी चंबा से 22 किमी .दूर सलूनी से जुड़ी हुई है। यहां से ट्रैकिंग करते हुए जम्मू कश्मीर पहुंचा जा सकता है।

भरमौर


चंबा की इस प्राचीन राजधानी को पहले ब्रह्मपुरा नाम से जाना जाता था। 2195 मीटर की ऊंचाई पर स्थित भरमौर घने जंगलों से घिरा है। किवदंतियों के अनुसार 10 वीं शताब्दी में यहां 84 संत आए थे। उन्होंने यहां के राजा को 10 पुत्र और एक पुत्री चंपावती का आशीर्वाद दिया था। यहां बने मंदिर को चौरासी नाम से जाना जाता है। लक्ष्मी देवी, गणेश और नरसिंह मंदिर चौरासी मंदिर के अन्तर्गत ही आतें हैं। भरमौर से कुगती पास और कलीचो पास की ओर जाने के लिए उत्तम ट्रैकिंग रूट है।

चौगान


यह खुला घास का मैदान है। लगभग 1 किमी. लंबा और 75 मीटर चौड़ा यह मैदान चंबा के बीचों बीच स्थित है। चौगान में प्रतिवर्ष मिंजर मेले का आयोजन किया जाता है। एक सप्ताह तक चलने वाले इस मेले में स्थानीय निवासी रंग बिरंगी वेशभूषा में आते हैं। इस अवसर पर यहां बड़ी संख्या में सांस्कृतिक और खेलकूद की गतिविधियां आयोजित की जाती हैं।

वजरेश्वरी मंदिर

यह प्राचीन मंदिर एक हजार साल पुराना माना जाता है। प्रकाश की देवी वजरेश्वरी को समर्पित यह मंदिर नगर के उत्तरी हिस्से में स्थित जनसाली बाजार के अंत में स्थित है। शिखर शैली में निर्मित इस मंदिर का छत लकड़ी से बना है और एक चबूतरे पर स्थित है। मंदिर के शिखर पर बेहतरीन नक्काशी की गई है।

सुई माता मंदिर


चंबा के निवासियों के लिए अपना जीवन त्यागने वाली यहां की राजकुमारी सुई को यह मंदिर समर्पित है। यह मंदिर शाह मदार हिल की चोटी पर स्थित है। यहाँ सुई माता नें कुछ समय के लिए विश्राम किया था। यहाँ सुई माता की याद में यहां हर साल सुई माता का मेला चैत महीने से शुरु होकर बैसाख महीने तक चलता है। यह मेला महिलाओं और बच्चों द्वारा मनाया जाता है। मेले में रानी के गीत गाए जाते हैं और रानी के बलिदान को श्रद्धांजलि‍ देने के लिए लोग सुई मन्दिर से रानी के वलिदान स्थल मलूना तक जाते हैं।

चामुन्डा देवी मंदिर


यह मंदिर पहाड़ की चोटी पर स्थित है जहां से चंबा की स्लेट निर्मित छतों और रावी नदी व उसके आसपास का सुन्दर नजारा देखा जा सकता है। मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है और देवी दुर्गा को समर्पित है। मंदिर के दरवाजों के ऊपर, स्तम्भों और छत पर खूबसूरत नक्काशी की गई है। मंदिर के पीछे शिव का एक छोटा मंदिर है। मंदिर चंबा से तीन किलोमीटर दूर चंबा-जम्मुहार रोड़ के दायीं ओर है। भारतीय पुरातत्व विभाग मंदिर की देखभाल करता है।

हरीराय मंदिर

भगवान विष्णु का यह मंदिर 11 शताब्दी में बना था। कहा जाता है कि यह मंदिर सालबाहन ने बनवाया था। मंदिर चौगान के उत्तर पश्चिम किनारे पर स्थित है। मंदिर के शिखर पर बेहतरीन नक्काशी की गई है।हरीराय मंदिर में चतुमूर्ति आकार में भगवान विष्णु की कांसे की बनी अदभुत मूर्ति स्थापित है। केसरिया रंग का यह मंदिर चंबा के प्राचीनतम मंदिरों में एक है।

लखाना मंदिर भरमौर 


यह हिमाचल प्रदेश का शिखर शैली में बना बहुत पुराना मंदिर है। देवी लक्ष्मी को यहां महिसासुरमर्दिनी रूप में दिखाया गया है। मंदिर में स्थापित देवी की पीतल की प्रतिमा राजा मेरू वर्मन के उस्ताद कारीगर मुग्गा ने बनाई थी। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश का प्रमुख और पवित्र तीर्थ स्थल है। यहां हर साल मणिमहेश यात्रा का आयोजन होता है।

रंगमहल


चंबा के शाही परिवारों का यह निवास स्थल राजा उमेद सिंह ने 1748 से 1764 के बीच बनवाया था। महल का पुनरोद्धार राजा शाम सिंह के कार्यकाल में ब्रिटिश इंजीनियरों की मदद से किया गया। 1879 में कैप्टन मार्शल ने महल में दरबार हॉल बनवाया। बाद में राजा भूरी सिंह के कार्यकाल में इसमें जनाना महल जोड़ा गया। महल की बनावट में ब्रिटिश और मुगलों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। 1958 में शाही परिवारों के उत्तराधिकारियों ने हिमाचल सरकार को यह महल बेच दिया। बाद में यह महल सरकारी कॉलेज और जिला पुस्तकालय के लिए शिक्षा विभाग को सौंप दिया गया।

चंबा जाने के लिए नजदीकी एयरपोर्ट पंजाब के अमृतसर में है जो चंबा से 240 किमी. दूर है। अमृतसर से चंबा जाने के लिए बस या टैक्सी की सेवाएं ली जा सकती हैं। 

चंबा से 140 किमी. दूर पठानकोट नजदीकी रेलवे स्टेशन है। पठानकोट दिल्ली और मुम्बई से नियमित ट्रैनों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। यहां से बस या टैक्सी के द्वारा चंबा पहुंचा जा सकता है। 

चंबा सड़क मार्ग से हिमाचल के प्रमुख शहरों व दिल्ली और चंडीगढ़ से जुड़ा हुआ है। राज्य परिवहन निगम की बसें चंबा के लिए नियमित रूप से चलती हैं।

जाब पर्वतीय प्रदेश चंबा का अरबी नाम है। इसके जाफ, हाब, आब और गाब नाम भी हैं। इसकी प्राचीन राजधानी ब्रह्मपुर (वयराटपट्टन) थी। हुएनत्सांग ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि यह अलखनंदा और करनाली नदियों के बीच बसा है। कुछ काल बाद इस प्रदेश की राजधानी चंबा हो गई। १५ अप्रैल १९४८ में इसका विलयन भारत सरकार द्वारा शासित हिमाचल प्रदेश में हो गया।

अरब लेखकों ने सामान्यत: चंबा के सूर्यवंशी राजपूत शासकों को 'जाब' की उपाधि के साथ लिखा है। हब्न रुस्ता का मत है कि यह शासन सालुकि वंश के थे परंतु राजवंश की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। ८४६ ई. में सर्वप्रथम हब्न खुर्रदद्बी ने 'जाब' का प्रयोग किया, पर ऐसा लगता है कि इस शब्द की उत्पत्ति अरब साहित्य में इससे पूर्व हो चुकी थी। इस प्रकार यह प्रामाणिक माना जाता है कि चंबा नगर ९ वीं शताब्दी के प्रथम दशक में विद्यमान था। इब्न रुस्ता ने लिखा है कि चंबा के शासक प्राय: गुर्जरों और प्रतिहारों से शत्रुता रखते थे।

साभार: विकिपीडिया 

Saturday, October 31, 2015

जानिए, यात्रा के दौरान किन चीजों की खरीदारी यादगार के तौर पर कर सकते हैं...

हर डेस्टिनेशन की अपनी एक खास पहचान होती है। वहां से की गई खरीदारी आपको हमेशा उन खूबसूरत पलों की याद दिलाती रहती है, जो आपने वहां बिताए हैं। जानिए यात्रा के दौरान किन यादगार चीजों की खरीदारी सूवनिर यानी निशानी के तौर पर कर सकते हैं...

मनुष्य स्वभाव से ही अपने परिवेश में बदलाव पसंद करने वाला प्राणी है। यही कारण है कि अधिकांश लोग अपने दैनिक जीवन के बोझिलपन को दूर करने के लिए पहाड़ों, तीर्थस्थलों, मनमोहक स्थलों, विदेश आदि की यात्रा करना पसंद करते हैं। इससे न केवल हमारे दैनिक जीवन का बोझिलपन दूर होता है, बल्कि यह हमें तरोताजा भी बनाता है। लंबे समय तक ऐसे स्थलों की स्मृतियां भी हमारे मानस पटल पर अंकित रहती हैं और हमारे मन मस्तिष्क को आह्लादित करती रहती हैं। लेकिन एक ऐसा तरीका भी है जिससे हम अपनी यात्राओं के खूबसूरत पलों को हमेशा के लिए सजों कर रख सकते हैं और वह तरीका है हम टू रिस्ट प्लेस से कोई ऐसा सूवनिर या निशानी अपने साथ लेकर आएं, जो हमें सदैव उस टूरिस्ट स्पॉट में बिताए खूबसूरत पलों की याद दिलाती रहे। ये सूवनिर न केवल हम अपने लिए खरीद सकते हैं, बल्कि अपने सगे-संबंधियों को भेंट भी कर सकते हैं। अक्सर देखा गया है कि अधिकतर लोग टूरिस्ट स्पॉट से घिसी-पिटी चीजों की खरीदारी करके आते हैं, जिनका महत्व ज्यादा दिनों तक नहीं रहता है और जल्दी ही वे घर के कबाड़ का हिस्सा बन जाती हैं।

इसलिए आवश्यक है कि जब अगली बार आप अपने किसी पसंदीदा टूरिस्ट प्लेस पर जाएं, तो खरीदारी करते हुए थोड़ा-सा क्रिएटिव हो जाएं और अपने साथ उस स्थान का कोई ऐसा सूवनिर या स्मृति चिन्ह लेकर आएं, जिसे हम संजोकर रखने में फख्र महसूस कर सकें। 

खरीदें कुछ अनूठा

अधिकांश टूरिस्ट स्पॉट्स अपनी किसी अनूठी चीज के लिए मशहूर होते हैं। ये न केवल सस्ते होते हैं, बल्कि वे अन्य किसी स्थान पर आसानी से मिलते भी नहीं हैं। उदाहरण के लिए हम पुरी का नाम ले सकते हैं, जहां का लेस वर्क या क्लॉथ पैच वर्क पूरी दुनिया में अपनी खूबसूरती के लिए जाना जाता है। इसे वहां की ग्रामीण महिलाओं द्वारा काफी मेहनत के साथ सिलकर तैयार किया जाता है। अगर आप किसी धार्मिक महत्व की जगह पर घूमने जा रहे हैं तो वहां से भगवान की छोटी-छोटी खूबसू रत मूर्तियां अवश्य खरीदकर लाएं। जैसे आप वृंदावन जाते हैं तो वहां से भगवान कृष्ण की छोटी मूर्ति खरीद सकते हैं। ऐसा करके न केवल आप अपने और अपने सगे संबंधियों लिए एक अनूठी निशानी लेते हैं, बल्कि वहां के स्थानीय शिल्पकारों की रोजीरोटी का साधन भी बन सकते हैं।

प्राकृतिक चीजों की करें खरीदारी

जहां तक प्राकृतिक चीजों का सवाल है, तो आप सीपियों, शंखों, विभिन्न आकारों के पत्थरों आदि को टूरिस्ट स्पॉट्स से लेकर आ सकते हैं। आप इन सभी चीजों को अपने लिविंग रूम में कांच के बाउल में या बोतल में सजा कर रख भी सकते हैं, जो आपको सदैव उस प्राकृतिक स्थल के सौंदर्य की याद दिलाती रहेंगे।

इतना ही नहीं, आप किसी खूबसूरत जंगली पौधों अथवा ब्लू स्टारफिश का फोटोग्राफ लेकर उसे हमेशा के लिए संजोकर अपने एल्बम में सुरक्षित रख सकते हैं। इसी तरह से साबुन, लोशन, शावर जेल्स और सुगंधित तेलों जैसे सौंदर्य व स्नान करने वाले उत्पादों की खरीदारी भी की जा सकती है। यदि आपने केरल को अपने घूमने के लिए चुना है, तो अपने अजीज मित्र या सगे-संबंधियों के लिए स्थानीय खुशबूदार तेल या जड़ी-बूटी की खरीद कर उन्हें खुश कर सकते हैं।

टेक्सटाइल

बात अगर कपड़ों की हो, तो अपने आपको रोकना थोड़ा मुश्किल होता है,हम कहीं घूमने जाएं और वहां से कपड़ों की खरीददारी न करें, हो ही नहीं सकता। वैसे कई लोग लिनन खरीदना ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि लिनन के साथ एक फायदा यह है कि ये काफी हल्के होते हैं और किसी सूटकेस में आसानी के साथ मोड़ कर रखे जा सकते हैं। टेबल क्लॉथ व तौलिया तो सभी खरीदते हैं, लेकिन हमें इसके कहीं आगे जाकर सोचने की जरूरत है। जरूरी है कि यात्रा के दौरान हम किसी ऐसी चीज की ही खरीदारी करें, जो हमेशा हमारे दिल के करीब रहे। खूबसूरत रुमाल, एक छोटा वूलेन रग, वॉल हैंगिंग या बेड कवर ऐसे ही अनूठे उपहार हैं जिनकी सभी प्रशंसा करेंगे। टेक्सटाइल के क्षेत्र में वाराणसी/ कांजीवरम की पारंपरिक बनारसी/ कांजीवरम साडिय़ों से बेहतर शायद कुछ हो ही नहीं सकता है। सदियों से लोग इन्हें पसंद करते चले आ रहे हैं और आज भी इनका पुराना आकर्षण बरकरार है। यदि आप इनकी खरीदारी करते हैं, तो जिंदगी भर के लिए बनारसी व कांजीवरम अपने जेहन में ताजा बने रहेंगे। इसी तरह कश्मीर की पश्मीना शॉल व याक के वूल से बनी टोपियों का कहना ही क्या है। इसे सभी पसंद करते हैं। यदि आप इन्हें अपने साथ लाते हैं, तो जिंदगी भर ये आपके घर की शोभा बढ़ाते रहेंगे।

टिकट/ब्रोशर/मेमोरेबिलिया

अक्सर लोग विदेश घूमने या फिर किसी कार्यवश जाते हैं। वे वहां पोस्ट ऑफिस जाकर स्टैम्प टिकट खरीद सकते हैं। विदेश में ऐसे कैलेंडर भी लिए जा सकते हैं, जिसमें वहां के किसी स्थानीय प्राकृतिक स्थल की फोटो हो या फिर किसी कलाकार की कलाकृति की फोटो हो। जिसे आप फ्रेम कराकर अपने घर की दिवारों की शोभा भी बढ़ा सकते हैं।आप ऐसी प्लेट्स भी खरीद सकते हैं जिनमें उस जगह का मैप बना हो जिसे आप अपने रूम में सजा भी सकते है, आजकल ये काफी चलन में भी है। इसके अलावा, आप स्थानीय जगहों के मैप और ऐतिहासिक इमारतों की फोटो वाले पेपरवेट, फ्रिज पर लगाने वाले मैग्नेट आदि की भी खरीददारी कर सकते हैं। पोस्ट कार्ड भी अच्छे सूवनिर साबित हो सकते हैं। ये न केवल किफायती होते हैं, बल्कि इन्हें आसानी से पैक करके अपने साथ विदेश से लाया भी जा सकता है। जब भी पोस्ट कार्ड खरीदें उसक पीछे उस जगह का नाम और दिन जरूर लिखे, जिससे आप जब भी उसे देखेंगे आपको वो पल जरूर याद आयेगा।

विंटेज फोटोग्राफ्स भी आपके लिए एक बेहतरीन सूवनिर हो सकते हैं। जिस देश में आप घूमने गए हैं वहां के महापुरुषों की फोटोग्राफ कलेक्ट की जा सकती हैं। जैसे भारत आने वाला दुनिया का लगभग हर टूरिस्ट कहीं न कहीं महात्मा गांधी से जुड़ी चीजों को, फोटोग्राफ्स को कलेक्ट करता है, वैसे आप भी ऐसी फोटोग्राफ्स कलेक्ट कर सकते हैं। ये फोटोग्राफ्स आपको वहां के लोकल एंटीक मार्केट में आसानी से मिल सकती हैं। यदि आप इस मामले में और भी क्रिएटिव होना चाहते हैं, तो किसी ऐतिहासिक स्थल की एंट्री टिकट को, ब्रोसर को भी सूवनिर के रूप में अपने पास रख सकते हैं, जो आपके घर में एक अनूठी निशानी के रूप में सदैव बरकरार रह सकते हैं।

बच्चों के लिए सूवनिर

बच्चों के लिए सूवनिर खरीदना निश्चित रूप से काफी मेहनत का कार्य है। बच्चे तड़क-भड़क वाली चीजों को ही पसंद करते हैं। टी-शर्ट व स्थानीय स्तर पर बनाई गई मू र्तियां उनके लिए आदर्श सूवनिर साबित हो सकती हैं। उदाहरण के लिए गोवा की यात्रा के दौरान आप स्थानीय रूप से बनी गोवा बीच की प्रिंट वाली टी-शर्ट खरीद सकते हैं। बच्चों के मामले में थोड़ा ज्यादा क्रिएटिव होने की जरूरत है और वे निश्चित रूप से आपकी लाई हुई चीजों को पसंद करेंगे। एक महत्वपूर्ण बात और, आप बच्चों को भी सूवनिर को सजाने में शामिल करें, इससे उनकी जानकारी भी बढ़ेगी और वे हमेशा उस स्थान और वहां की चीजों से अपना जुड़ाव महसूस करेंगे। इस तरह से अगर आप थोड़ा दिमाग का प्रयोग करते हुए क्रिएटिव तरीके से टूरिस्ट स्पॉट्स में खरीदारी करते हैं, तो न केवल आपका वहां जाना सार्थक साबित होगा, बल्कि लंबे समय तक उस रमणीक स्थल की यादें भी आपके जेहन में ताजा बनी रहेंगी। इसी के साथ विशिष्ट उपहारों को अपने परिवार वालों व सगे-संबंधियों को भेंट करके आप उनको भी खुश कर सकते हैं।

फूड और गॉरमेंट

यदि आप किसी ऐसे टूरिस्ट स्पॉट में गए हैं, जहां खाने-पीने की चीजें बहुतायत में मिलती हैं, तो वहां आप ऐसी चीजों की खरीदारी कर सकते हैं। खाने-पीने की वस्तुएं भी जबर्दस्त उपहार साबित हो सकती हैं। अपने टूरिस्ट स्पॉट में आप लोकल मार्केट में जाकर कुछ ऐसी वस्तुएं खरीदें, जिसे आपने कभी खाया न हो और वे चीजें वहां की खासियत हों। अमूमन चाय, चॉकलेट, कुकीज और कैंडी तो सभी खरीदना पसंद करते हैं, लेकिन कुछ विशेष खरीदने की कोशिश करें। जहां आप घूमने गए हैं अगर वहां के मसाले और ड्राई फ्रू ट्स मशहूर हैं, तो वो खरीदे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए दार्जिलिंग की विशेष रूप से पैक की गई चाय व पुणे के वाइनयार्ड के प्रोडक्ट का नाम लिया जा सकता है, जिनका स्वाद विशेष होता है।

किताबें

इंटरनेट व टीवी के जमाने में आज भी एक बड़ा वर्ग है, जो किताबें खरीद कर उन्हें पढऩा पसंद करता है। इसी के साथ काफी बड़े वर्ग को किताबें इकठ्ठा करने का शौक भी होता है। इसलिए सूवनिर कलेक्शन के लिए एक बुकस्टोर सबसे बेहतर जगह साबित हो सकती है। यदि टूरिस्ट स्पॉट में घूमने के लिए आपके पास ज्यादा समय नहीं है, तो आप विदेशी भाषा की डिक्शनरी खरीद सकते हैं, स्थानीय अखबार व मैगजीन की खरीदारी भी निशानी के रूप में की जा सकती है।

बुकस्टोर्स से न केवल किताबों की ही खरीदारी की जा सकती है, बल्कि ट्रैवल गाइड, कॉफी टेबुल बुक, खाने-पीने की किताबों आदि की भी खरीदारी की जा सकती है, जो लंबे समय तक आपके पास सुरक्षित रहकर आपको उस टूरिस्ट स्पॉट की याद दिलाती रहेंगी।

खास अहसास

जब कभी आप किसी टूरिस्ट प्लेस पर जाएं, तो वहां की खासियतों से जुड़ी चीजों को अपने साथ ला सकते हैं। ऐसी वस्तुओं को आप अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच बांट कर उनकी प्रशंसा पा सकते हैं। ऐसी नायाब और खास वस्तुओं के संग्रह से आप अपने घर को भी खास बना सकते हैं।

करेंसी

विदेश की यात्रा के दौरान सफर की शुरुआत में ही आपको अपनी करेंसी को उस देश की करेंसी के साथ बदलना होता है। यदि इनमें से आप कुछ सिक्के ले लें तो बेहतर रहेगा। ये सिक्के बेहतरीन सूवनिर का काम करते हैं। हां, एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि सिक्के इतनी ज्यादा संख्या में हों कि न केवल आप उन्हें अपने लिए रख सकें, बल्कि उन्हें आप अपने बच्चों व सगे- संबंधियों को भी भेंट दे सकें। सिक्कों के अतिरिक्त पेपर करेंसी भी आपके लिए एक अच्छा सूवनिर साबित होगा। आपके कई मित्र व सगे-संबंधी ऐसे होंगे जो क्वॉइन कलेक्शन और पेपर करेंंसी यानी नोटों के शौकीन भी होंगे, उनके लिए तो यह किसी नियामत से कम नहीं होगा।

साभार: दैनिक जागरन 

Friday, May 8, 2015

KUNJAPURI DEVI - कुंजापुरी देवी सिद्ध पीठ



स्कन्दपुराण के अनुसार राजा दक्ष की पुत्री, सती का विवाह भगवान शिव से हुआ था। त्रेता युग में असुरों के परास्त होने के बाद दक्ष को सभी देवताओं का प्रजापति चुना गया। उन्होंने इसके उपलक्ष में कनखल में यज्ञ का आयोजन किया। उन्होंने, हालांकि, भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया क्योंकि भगवान शिव ने दक्ष के प्रजापति बनने का विरोध किया था। भगवान शिव और सती ने कैलाश पर्वत, जो भगवान शिव का वास-स्थान है, से सभी देवताओं को गुजरते देखा और यह जाना कि उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। जब सती ने अपने पति के इस अपमान के बारे में सुना तो वे यज्ञ-स्थल पर गईं और हवन कुंड में अपनी बलि दे दी। जब तक शिव वहां पहुंचते तब तक वे बलि हो चुकी थीं।

भगवान शिव ने क्रोध में आकर तांडव किया और अपनी जटाओं से गण को छोड़ा तथा उसे दक्ष का सर काट कर लाने तथा सभी देवताओं को मार-पीट कर भगाने का आदेश दिया। पश्चातापी देवताओं ने भगवान शिव से क्षमा याचना की और उनसे दक्ष को यज्ञ पूरा करने देने की विनती की। लेकिन, दक्ष की गर्दन तो पहले ही काट दी गई थी। इसलिए, एक भेड़े का गर्दन काटकर दक्ष के शरीर पर रख दिया गया ताकि वे यज्ञ पूरा कर सकें।

भगवान शिव ने हवन कुंड से सती के शरीर को बाहर निकाला तथा शोकमग्न और क्रोधित होकर वर्षों तक इसे अपने कंधों पर ढोते विचरण करते रहें। इस असामान्य घटना पर विचार-विमर्श करने सभी देवतागण एकत्रित हुए क्योंकि वे जानते थे कि क्रोध में भगवान शिव समूची दुनिया को नष्ट कर सकते हैं। आखिरकार, यह निर्णय लिया गया कि भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र का उपयोग करेंगे। भगवान शिव के जाने बगैर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 52 टुकड़ों में विभक्त कर दिया। धरती पर जहां कहीं भी सती के शरीर का टुकड़ा गिरा, वे स्थान सिद्ध पीठों या शक्ति पीठों (ज्ञान या शक्ति के केन्द्र) के रूप में जाने गए। उदाहरण के लिए नैना देवी वहां हैं, जहां उनकी आंखें गिरी थीं, ज्वाल्पा देवी वहां हैं, जहां उनकी जिह्वा गिरी थी, सुरकंडा देवी वहां हैं, जहां उनकी गर्दन गिरी थी और चंदबदनी देवी वहां हैं, जहां उनके शरीर का नीचला हिस्सा गिरा था।

उनके शरीर के ऊपरी भाग, यानि कुंजा उस स्थान पर गिरा जो आज कुंजापुरी के नाम से जाना जाता है। इसे शक्तिपीठों में गिना जाता है।

देवी कुंजापुरी मां को समर्पित मां कुंजापुरी देवी मंदिर से दर्शनार्थी गढ़वाल पहाड़ियों के रमणीय दृश्य को देख सकते हैं। आप कई महत्वपूर्ण चोटियों जैसे उत्तर दिशा में स्थित बंदरपंच (6,320 मी.), स्वर्गारोहिणी (6,248 मी.), गंगोत्री (6,672 मी.) और चौखम्भा (7,138 मी.) को देख सकते हैं। दक्षिण दिशा में यहां से ऋषिकेश, हरिद्वार और इन घाटी जैसे क्षेत्रों को देखा जा सकता है।

यह मंदिर उत्तराखंड में अवस्थित 51 सिद्ध पीठों में से एक है। मंदिर का सरल श्वेत प्रवेश द्वार में एक बोर्ड प्रदर्शित किया गया है जिसमें यह लिखा गया है कि यह मंदिर को 197वीं फील्ड रेजीमेंट (कारगिल) द्वारा भेंट दी गई है। मंदिर तक तीन सौ आठ कंक्रीट सीढ़ियां पहुंचती हैं। वास्तविक प्रवेश की पहरेदारी शेर, जो देवी की सवारी हैं और हाथी के मस्तकों द्वारा की जा रही है। कुंजापुरी मंदिर अपने आप में ही श्वेतमय है। हालांकि, इसके कुछ हिस्से चमकीले रंगों में रंगे गए हैं। इस मंदिर का 01 अक्टूबर 1979 से 25 फ़रवरी 1980 तक नवीकरण किया गया था मंदिर के गर्भ गृह में कोई प्रतिमा नहीं है - वहां गड्ढा है - कहा जाता है कि यह वही स्थान है जहां कुंजा गिरा था। यहीं पर पूजा की जाती है, जबकि देवी की एक छोटी सी प्रतिमा एक कोने में रखी है।

मंदिर के परिसर में भगवान शिव की मूर्ति के साथ-साथ भैरों, महाकाली नागराज और नरसिंह की मूर्तियां हैं।

मंदिर में प्रतिदिन प्रातः 6.30 और सायं 5 से 6.30 बजे तक आरती का आयोजन किया जाता है।

कुंजापुरी के पुजारी कुंवर सिंह भंडारी और धरम सिंह भंडारी -- उस वंश से आते हैं जिसने पीढ़ियों से कुंजापुरी मंदिर में पूजा की है। रोचक बात यह है कि गढ़वाल के अन्य मंदिरों, जहां पुजारी सदैव एक ब्राह्मण होता है, के उलट कुंजापुरी पुजारी राजपूत या जजमान होते हैं उन्हें जिस नाम से गढ़वाल में जाना जाता है। उन्हें इस मंदिर में बहुगुणा जाति के ब्राह्मणों के द्वारा शिक्षा दी जाती है।

वर्ष 1972 से प्रतिवर्ष दशहरा पर्व के पहले नवरात्रों के दौरान कुंजापुरी मंदिर में कुंजापुरी पर्यटन एवं विकास मेले का आयोजन किया जाता है।

यह इस क्षेत्र के सबसे बड़े पर्यटक आकर्षण केन्द्रों में से एक है। इसमें पड़ोसी क्षेत्रों के साथ-साथ दुनियाभर के लगभग 50,000 दर्शक भाग लेते हैं। यह मेला पर्यटन एवं विकास को बढ़ावा देने की दोहरी भूमिका निभाता है। कई प्रकार की अंतसांस्कृतिक प्रदर्शनियां और संगीत एवं नृत्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जिसमें देशभर के कलाकार हिस्सा लेते हैं। सरकार भी विकास के एक साधन के तौर पर इस मेले का उपयोग करती है तथा स्थानीय किसानों को फसलों और खेती की तकनीकों के बारे में जानकारी देने के लिए इस अवसर का उपयोग करती है।

Saturday, March 21, 2015

SIMSA MATA MANDIR - सिमसा माता मंदिर



हिमाचल के मंडी जिला की लड़भडोल तहसील के सिमस गांव में एक देवी का मंदिर ऐसा है जहां पर निसंतान महिलाओं के फर्श पर सोने से संतान की प्राप्ति होती है। नवरात्रों में हिमाचल के पड़ोसी राज्यों पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ से ऐसी सैकड़ों महिलाएं इस मंदिर की ओर रूख करती हैं जिनकी संतान नहीं होती है। इस मंदिर कैसे निसंतान महिलाएं संतान होने का सुख पाती हैं, नवरात्रि के पावन अवसर पर इस चमत्कारी देवी के बारे में आपको बताने जा रहे हैं। 


मंदिर में सोने पर आते हैं सांकेतिक स्वप्न 

हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के लड़-भड़ोल तहसील के सिमस नामक खूबसूरत स्थान पर स्थित माता सिमसा मंदिर दूर दूर तक प्रसिद्ध है। माता सिमसा या देवी सिमसा को संतान-दात्री के नाम से भी जाना जाता है। हर वर्ष यहां निसंतान दंपति संतान पाने की इच्छा ले कर माता के दरबार में आते हैं। नवरात्रों में होने वाले इस विशेष उत्सव को स्थानीय भाषा में सलिन्दरा कहा जाता है। सलिन्दरा का अर्थ है स्वप्न आना होता है। नवरात्रों में निसंतान महिलायें मंदिर परिसर में डेरा डालती हैं और दिन रात मंदिर के फर्श पर सोती हैं ऐसा माना जाता है कि जो महिलाएं माता सिमसा के प्रति मन में श्रद्धा लेकर से मंदिर में आती हैं माता सिमसा उन्हें स्वप्न में मानव रूप में या प्रतीक रूप में दर्शन देकर संतान का आशीर्वाद प्रदान करती है। 


स्वप्न में लकड़ी या पत्थर दिखने पर नहीं होती है संतान 

मान्यता के अनुसार, यदि कोई महिला स्वप्न में कोई कंद-मूल या फल प्राप्त करती है तो उस महिला को संतान का आशीर्वाद मिल जाता है। देवी सिमसा आने वाली संतान के लिंग-निर्धारण का भी संकेत देती है। जैसे कि, यदि किसी महिला को अमरुद का फल मिलता है तो समझ लें कि लड़का होगा। अगर किसी को स्वप्न में भिन्डी प्राप्त होती है तो समझें कि संतान के रूप में लड़की प्राप्त होगी। यदि किसी को धातु, लकड़ी या पत्थर की बनी कोई वस्तु प्राप्त हो तो समझा जाता है कि उसके संतान नहीं होगी। 

मंदिर के पास पत्थर जो हिलता है एक उंगली से 


कहते हैं कि निसंतान बने रहने स्वप्न प्राप्त होने के बाद भी यदि कोई औरत अपना बिस्तर मंदिर परिसर से नहीं हटाती है तो उसके शरीर में खुजली भरे लाल-लाल दाग उभर आते हैं। उसे मजबूरन वहां से जाना पड़ता है। संतान प्राप्ति के बाद लोग अपना आभार प्रकट करने सगे-सम्बन्धियों और कुटुंब के साथ मंदिर में आते हैं। यह मंदिर बैजनाथ से 25 किलोमीटर तथा जोगिन्दर नगर से लगभग 50 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। सिमसा माता मंदिर के पास यह पत्थर बहुत प्रसिद है । इस पत्थर को दोनों हाथों से हिलाना चाहो तो यह नही हिलेगा और आप अपने हाथ की सबसे छोटी ऊँगली से इस पत्थर को हिलाओगे तो यह हिल जायेगा। 

साभार: दैनिक भास्कर

Monday, March 2, 2015

KARNESHWAR MANDIR - प्राचीन कर्णेश्वर मंदिर

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मालवांचल में कौरवों ने अनेक मंदिर बनाएँ थे जिनमें से एक है सेंधल नदी के किनारे बसा यह कर्णेश्वर महादेव का मंदिर। करनावद (कर्णावत) नगर के राजा कर्ण यहाँ बैठकर ग्रामवासियों को दान दिया करते थे इस कारण इस मंदिर का नाम कर्णेश्वर मंदिर पड़ा।

ऐसी मान्यता है कि कर्ण यहाँ के भी राजा थे और उन्होंने यहाँ देवी की कठिन तपस्या की थी। कर्ण रोज देवी के समक्ष स्वयं की आहूती दे देते थे। देवी उनकी इस भक्ति से प्रसन्न होकर रोज अमृत के छींटें देकर उन्हें जिंदा करने के साथ ही सवा मन सोना देती थी। जिसे कर्ण उक्त मंदिर में बैठककर ग्रामवासियों को दान कर दिया करते थे।
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मालवा और निमाड़ अंचल में कौरवों द्वारा बनाए गए अनेकों मंदिर में से सिर्फ पाँच ही मंदिर को प्रमुख माना गया हैं जिनमें क्रमश: ओंमकारेश्वर में ममलेश्वर, उज्जैन में महांकालेश्वर, नेमावर में सिद्धेश्वर, बिजवाड़ में बिजेश्वर और करनावद में कर्णेश्वर मंदिर। इन पाँचों मंदिर के संबंध में किंवदंति हैं कि पांडवों ने उक्त पाँचों मंदिर को एक ही रात में पूर्वमुखी से पश्चिम मुखी कर दिया गया था।

कर्णेश्वर महादेव मंदिर के पूजारी हेमंत दुबे ने कहा कि ऐसी किंवदंती है कि अज्ञात वास के दौरान माता कुंति रेत के शिवलिंग बनाकर शिवजी की पूजा किया करती थी तब पांडवों ने पूछा कि आप किसी मंदिर में जाकर क्यों नहीं पूजा करती? कुंति ने कहा कि यहाँ जितने भी मंदिर हैं वे सारे कौरवों द्वारा बनाए गए है जहाँ हमें जाने की अनुमति नहीं है। इसलिए रेत के शिवलिंग बनाकर ही पूजा करनी होगी।

कुंति का उक्त उत्तर सुनकर पांडवों को चिंता हो चली और फिर उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से उक्त पाँच मंदिर के मुख को बदल दिया गया तत्पश्चात कुंति से कहा की अब आप यहाँ पूजा-अर्चना कर सकती हैं क्योंकि यह मंदिर हमने ही बनाया है।
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कर्णेश्वर मंदिर की भव्यता देखते ही बनती है। बताया जाता हैं कि इस मंदिर में स्थित जो गुफाएँ हैं वे उज्जैन के महांकालेश्वर मंदिर के अलावा अन्य तीर्थ स्थानों तक अंदर ही अंदर निकलती है। गाँव के कुछ लोगों द्वारा उक्त गुफाओं को बंद कर दिया गया है ताकि वह सुरक्षित रहे।

यहाँ प्रतिवर्ष श्रावण मास में उत्सवों का आयोजन होता है और बाबा कर्णेश्वर महादेव की झाँकियाँ निकलती है। धर्म यात्रा की इस बार की कड़ी आपको कैसी लगी हमें जरूर बताएँ।

कैसे पहुँचे:-
वायु मार्ग: कर्णावत स्थल के सबमें नजदीकी इंदौर का एयरपोर्ट है।
रेल मार्ग: इंदौर से 30 किलोमिटर पर स्थित देवास पहुँचकर करनावद अन्य साधनों से जाया जाता है।
सड़क मार्ग: देवास से 45 किलोमिटर दूर चापड़ा जाने के लिए बस और टैक्सी उपलब्ध है जहाँ से कुछ ही दूरी पर कर्णावत गाँव है।
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साभार : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु, वेबदुनिया

SHEETLA MATA MANDIR, GURGAO - शीतला माता मन्दिर- गुड़गाँव

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शीतला का मन्दिर गुड़गाँव, हरियाणा में स्थित है। 'नवरात्रि' के पावन दिनों में शीतला माता के मन्दिर में भक्तों की भीड़ काफ़ी बढ़ जाती है। देश के सभी प्रदेशों से श्रद्धालु यहाँ मन्नत माँगने आते हैं। मन्दिर देश भर के श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। यहाँ वर्ष में दो बार एक-एक माह का मेला लगता है।नवरात्रि में शीतला माता के दर्शन के लिए कई प्रदेशों से लाखों की तादाद में श्रद्धालु गुड़गाँव पहुँचते हैं।

गुड़गाँव के शीतला माता मन्दिर की कहानी महाभारत काल से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि महाभारत काल में यहाँ आचार्य द्रोणाचार्य कौरवों और पाण्डवों को अस्त्र-शस्त्र आदि का प्रशिक्षण देते थे। कहते हैं कि जब गुरु द्रोण महाभारत के युद्ध में द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा वीरगति को प्राप्त हुए, तो उनकी पत्नी कृपि अपने पति के साथ सती होने के लिए तैयार हुई। कृपि महर्षि शरद्वान की पुत्री तथा कृपाचार्य की बहन थी। जब कृपि ने 16 शृंगार कर सती होने की प्रथा निभाने के लिए अपने पति की चिता पर बैठना चाहा, तो लोगों ने उनको सती होने से रोका; लेकिन माता कृपि सती होने का निश्चय करके अपने पति की चिता पर बैठ गईं। उन्होंने लोगों को आशीर्वाद दिया कि मेरे इस सती स्थल पर जो भी अपनी मनोकामना लेकर पहुँचेगा, उसकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी।

सन 1650 में महाराजा भरतपुर ने गुड़गाँव में जहाँ माता कृपि सती हुई थीं, मन्दिर बनवाया और सवा किलो सोने की माता कृपि की मूर्ति बनवाकर वहाँ स्थापित की। इस मन्दिर में आज भी भारत के कोने-कोने से लाखों की संख्या में भक्त स्त्री-पुरुष अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए आते हैं। चैत्र मास के नवरात्रों, वैशाख और आषाढ़ के सम्पूर्ण मास तथा आश्विन के नवरात्रों में भारी मेला लगता है, जिसमें कम से कम 50 लाख यात्री दर्शनाथ आते है।लगभग 500 सालों से यह मन्दिर लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। यहाँ पर देश के कोने-कोने से लोग पूजा-पाठ के लिए आते हैं। लोगों की मान्यता है कि यहाँ पूजा करने से शरीर पर निकलने वाले दाने, जिन्हें स्थानीय बोलचाल की भाषा में 'माता' और विज्ञान में चेचक कहा जाता है, नहीं निकलते हैं। इसके अलावा नवजात शिशुओं के बालों का प्रथम मुंडन भी यहाँ पर कराते है।
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Tuesday, February 17, 2015

अर्धनारीश्वर महादेवजी काठगढ़




हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में काठगढ़ महादेव का मंदिर स्थित है। इस धार्मिक स्थल पर दो नदियों का संगम होता है।यह विश्व का एकमात्र मंदिर है जहां शिवलिंग ऐसे स्वरुप में विद्यमान हैं जो दो भागों में बंटे हुए हैं! अर्थात मां पार्वती और भगवान शिव के दो विभिन्न रूपों को ग्रहों और नक्षत्रों के परिवर्तित होने के अनुसार इनके भागों के मध्य का अंतर घटता-बढ़ता रहता है।ग्रीष्म ऋतु में यह स्वरूप दो भागों में बंट जाता है और शीत ऋतु में पुन: एक रूप धारण कर लेता है।



शिवलिंग का अर्थ है शिव यानी परमपुरुष का प्रकृति के साथ समन्वित-चिह्न। काठगढ़ महादेव शिवलिंग में भगवान शंकर के अद्र्धनारीश्वर श्री रुप के साक्षात दर्शन होते हैं। यह शिवलिंग अष्टकोणीय काले भूरे रंग रुप का लगभग 7 फुट और पार्वती माता के रुप शिवलिंग का हिस्सा थोड़ा छोटा होकर करीब 6 फुट का है और इनकी गोलाई लगभग 5 फुट है। भगवान शिव का यह स्वरूप जितना विचित्र है, उतना ही आकर्षक भी।

इस सृष्टि के आधार और रचयिता यानी स्त्री-पुरुष शिव और शक्ति के ही स्वरूप हैं। इनके मिलन और सृजन से यह संसार संचालित और संतुलित है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। नारी प्रकृति है और नर पुरुष। प्रकृति के बिना पुरुष बेकार है और पुरुष के बिना प्रकृति। दोनों का अन्योन्याश्रय संबंध है।अर्धनारीश्वर शिव इसी पारस्परिकता के प्रतीक है।


साभार : देवालय परिचय - Devalaya Parichay