Wednesday, September 12, 2012

Janaki Mandir-जानकी मंदिर-नेपाल

Janaki Mandir (Nepali: जानकी मन्दिर) is a Hindu temple located at the heart of Janakpur,Nepal. It is dedicated to goddess Sita


It is an example of 'Hindu-Rajput' architecture. This is considered as the most important model of the Rajput architecture in Nepal. 






History 

The Janaki Mandir was built by Queen Brisabhanu Kunwari of Tikamgarh from central India in AD 1911, at a cost of Rupees 900,000. In local parlance, the temple is also called Nau Lakha Mandir or Temple of Nine Lakh Rupees. 


In 1657, a golden statue of the Goddess Sita was found at the very spot, and Sita is also said to have lived there. The legend had it that it was built on the holy site where SannyasiShurkishordas had found the images of Goddess Sita. In fact, Shurkishordas was the founder of modern Janakpur and the great saint and poet who preached about the Sita Upasana (also called Sita Upanishad) philosophy. Legend has it that King Janaka performed the worship of 'Shiva-Dhanus' on this very site. 

साभार : विकिपीडिया 









Manu Rishi Temple Old Manali Dev Boomi Himachal - Himanchal

Manu Rishi Temple Old Manali Dev Boomi Himachal - Himanchal

Tuesday, September 11, 2012

कटारमल सूर्य मंदिर-KATARMAL SUN TEMPLE


HISTORY OF KATARMAL MANDIR 





Nestled among the thick deodars of these Kumaon hills is the imposing Surya temple. Located at KATARMAL at an altitude of 2116 mt, this quaint temple, built in the 9th century, is relatively unknown as compared to the world-famous sun temple of Konark. Little over one Kilometre ( 0.6 mile ) beyond Katarmal, is Bikut forest, from where a magnificent view of Almora presents itself. 

This sun temple is one of the most important temples dedicated to the Sun God. It was built by KATARMALLA, a Katyuri Raja, in the 9th century. In the early medieval period, Kumaon was ruled by the Katyuri dynasty. On a hilltop facing east, opposite Almora, is the temple of Katarmal.

The deity of the sun temple in Katarmal is known as Burhadita or Vraddhaditya (the old Sun God). The temple, noted for its magnificent architecture, artistically made stone and metallic sculptures and beautifully carved pillars and wooden doors, has a cluster of 44 small, exquisitely carved temples surrounding it. The present mandapa of the temple as well as many of the shrines within the enclosure have been constructed much later. The image of Surya in the temple dates back to 12th century (presently preserved at the National museum ,Delhi) . The idols of Shiva-Parvati and Lakshmi-Narayana are also found in the temple. However, the intricately carved doors and panels have been removed to the National Museum in Delhi after the 10th-century idol of the presiding deity was stolen.

But due to the sheer neglect of the authorities the temple and complex is in very bad shape. One feels sorry that a monument of such a historical importance had been left to decay like this. But even than it is a place worth visiting.Though now some restoration work has started , and the government is also making road. The temple is now protected and preserved by the Archeological Survey of India. 

Besides Katarmal and Konark, there are three other sun temples in the country - Modhera sun temple in Gujarat, Martand temple in Kashmir and Osia in Rajasthan.



कटारमल का सूर्य मन्दिर अपनी बनावट के लिए विख्यात है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इस मन्दिर की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उनका मानना है कि यहाँ पर समस्त हिमालय के देवतागण एकत्र होकर पूजा अर्चना करते रहै हैं। उन्होंने यहाँ की मूर्तियों की कला की प्रशंसा की है।

कटारमल के मन्दिर में सूर्य पद्मासन लगाकर बैठे हुए हैं। यह मूर्ति एक मीटर से अधिक लम्बी और पौन मीटर चौड़ी भूरे रंग के पत्थर में बनाई गई है। यह मूर्ती बारहवीं शताब्दी की बतायी जाती है। कोर्णाक के सूर्य मन्दिर के बाद कटारमल का यह सूर्य मन्दिर दर्शनीय है। कोर्णाक के सूर्य मन्दिर के बाहर जो झलक है, वह कटारमल मन्दिर में आंशिक रुप में दिखाई देती है।

कटारमल के सूर्य मन्दिर तक पहुँचने के लिए अल्मोड़ा से रानीखेत मोटरमार्ग के रास्ते से जाना होता है। अल्मोड़ा से १४ कि.मी. जाने के बाद ३ कि.मी. पैदल चलना पड़ता है। मन्दिर १५५४ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। अल्मोड़ा से कटारमल मंदिर १७ कि.मी. की निकलकर जाता है। रानीखेत से सीतलाखेत २६ कि.मी. दूर है। १८२९ मीटर की ऊँचाई पर बसा हुआ है। कुमाऊँ में खुले मैदान के लिए यह स्थान प्रसिद्ध है। कुमाऊँ का यह ऐसा खिला हुआ रमणीय स्थान है यहाँ देश के कोने-कोने से हजारों बालचर तथा एन.सी.सी. के कैडेट अपने-अपने शिविर लगाकर प्रशिक्षण लेते हैं। यहाँ ग्रीष्म ॠतु में रौनक रहती है। प्रशिक्षण के लिए यहाँ पर्याप्त व्यवस्था है। दूर-दूर तक कैडेट अपना कार्यक्रम करते हुए, यहाँ आनन्द मनाते हैं।


साभार : विकी उत्तराखंड., merapahad.com.

गर्जिया देवी मन्दिर-GARJIYA DEVI MANDIR


रामनगर से १० कि०मी० की दूरी पर ढिकाला मार्ग पर गर्जिया नामक स्थान पर देवी गिरिजा माता के नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी गिरिजा जो गिरिराज हिमालय की पुत्री तथा संसार के पालनहार भगवान शंकर की अर्द्धागिनी हैं, कोसी (कौशिकी) नदी के मध्य एक टीले पर यह मंदिर स्थित है। वर्ष १९४० तक इस मन्दिर के विषय में कम ही लोगों को ज्ञात था, वर्तमान में गिरिजा माता की कृपा से अनुकम्पित भक्तों की संख्या लाखों में पहुंच गई है। इस मन्दिर का व्यवस्थित तरीके से निर्माण १९७० में किया गया। जिसमें मन्दिर के वर्तमान पुजारी पं० पूर्णचंद्र पाण्डे का महत्वपूर्ण प्रयास रहा है। इस मंदिर के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिये इसकी ऐतिहासिक और धार्मिक पृष्ठभूमि को भी जानना आवश्यक है।
File:Garjiya.JPG

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

GARJIA MATA at RAMNAGAR
Girja Mata Idol at Ramnagar
पुरातत्ववेत्ताओं का कथन है कि कूर्मांचल की सबसे प्राचीन बस्ती ढिकुली के पास थी, जहां पर वर्तमान रामनगर बसा हुआ है। कोसी के किनारे बसी इसी नगरी का नाम तब वैराट पत्तन या वैराटनगर था। कत्यूरी राजाओं के आने के पूर्व यहां पहले कुरु राजवंश के राजा राज्य करते थे, जो प्राचीन इन्द्रप्रस्थ (आधुनिक दिल्ली) के साम्राज्य की छत्रछाया में रहते थे। ढिकुली, गर्जिया क्षेत्र का लगभग ३००० वर्षों का अपना इतिहास रहा है, प्रख्यात कत्यूरी राजवंश, चंद राजवंश, गोरखा वंश और अंग्रेजी शासकों ने यहां की पवित्र भूमि का सुख भोगा है। गर्जिया नामक शक्तिस्थल सन १९४० से पहले उपेक्षित अवस्था में था, किन्तु सन १९४० से पहले की भी अनेक दन्तश्रुतियां इस स्थान का इतिहास बताती हैं। वर्ष १९४० से पूर्व इस मन्दिर की स्थिति आज की जैसी नहीं थी, कालान्तर में इस देवी को उपटा देवी (उपरद्यौं) के नाम से जाना जाता था। तत्कालीन जनमानस कीदधारणा थी कि वर्तमान गर्जिया मंदिर जिस टीले में स्थित है, वह कोसी नदी की बाढ़ में कहीं ऊपरी क्षेत्र से बहकर आ रहा था। मंदिर को टीले के साथ बहते हुये आता देख भैरव देव द्वारा उसे रोकने के प्रयास से कहा गया- “थि रौ, बैणा थि रौ। (ठहरो, बहन ठहरो), यहां पर मेरे साथ निवास करो, तभी से गर्जिया में देवी उपटा में निवास कर रही है।

धार्मिक पृष्ठभूमि

BHAIRAV MANDIR AT GARJIA MATA
Bhairav Mandir in Garjia Ramnagar
लोक मान्यता है कि वर्ष १९४० से पूर्व यह क्षेत्र भयंकर जंगलों से भरा पड़ा था, सर्वप्रथम जंगलात विभाग के तत्कालीन कर्मचारियों तथा स्थानीय छुट-पुट निवासियों द्वारा टीले पर मूर्तियों को देखा और उन्हें माता जगजननी की इस स्थान पर उपस्थिति का एहसास हुआ। एकान्त सुनसान जंगली क्षेत्र, टीले के नीचे बहते कोसी की प्रबल धारा, घास-फूस की सहायता से ऊपर टीले तक चढ़ना, जंगली जानवरों की भयंकर गर्जना के बावजूद भी भक्तजन इस स्थान पर मां के दर्शनों के लिये आने लगे। जंगलात के तत्कालीन बड़े अधिकारी भी यहां पर आये, कहा जाता है कि टीले के पास मां दुर्गा का वाहन शेर भयंकर गर्जना किया करता था। कई बार शेर को इस टीले की परिक्रमा करते हुये भी लोगों द्वारा देखा गया।



गिरिजा माता महात्म्य

gate for garjiya
Gate of Garjia Mata At Ramnagar
भगवान शिव की अर्धांगिनि मां पार्वती का एक नाम गिरिजा भी है, गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण उन्हें इस नाम से भी बुलाया जाता है। इस मन्दिर में मां गिरिजा देवी के सतोगुणी रुप में विद्यमान है। जो सच्ची श्रद्धा से ही प्रसन्न हो जाती हैं, यहां पर जटा नारियल, लाल वस्त्र, सिन्दूर, धूप, दीप आदि चढ़ा कर वन्दना की जाती है। मनोकामना पूर्ण होने पर श्रद्धालु घण्टी या छत्र चढ़ाते हैं।  नव विवाहित स्त्रियां यहां पर आकर अटल सुहाग की कामना करती हैं। निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति के लिये माता में चरणों में झोली फैलाते हैं।
वर्तमान में इस मंदिर में गर्जिया माता की ४.५ फिट ऊंची मूर्ति स्थापित है, इसके साथ ही सरस्वती, गणेश जी तथा बटुक भैरव की संगमरमर की मूर्तियां मुख्य मूर्ति के साथ स्थापित हैं।
इसी परिसर में एक लक्ष्मी नारायण मंदिर भी स्थापित है, इस मंदिर में स्थापित मूर्ति यहीं पर हुई खुदाई के दौरान मिली थी।
कार्तिक पूर्णिमा को गंगा स्नान के पावन पर्व पर माता गिरिजा देवी के दर्शनों एवं पतित पावनी कौशिकी (कोसी) नदी में स्नानार्थ भक्तों की भारी संख्या में भीड़ उमड़ती है। इसके अतिरिक्त गंगा दशहरा, नव दुर्गा, शिवरात्रि, उत्तरायणी, बसंत पंचमी में भी काफी संख्या में दर्शनार्थी आते हैं।
पूजा के विधान के अन्तर्गत माता गिरिजा की पूजा करने के उपरान्त बाबा भैरव ( जो माता के मूल में संस्थित है) को चावल और मास (उड़द) की दाल चढ़ाकर पूजा-अर्चना करना आवश्यक माना जाता है, कहा जाता है कि भैरव की पूजा के बाद ही मां गिरिजा देवी की पूजा का सम्पूर्ण फ्ल प्राप्त होता है।

कैसे पहुंचे

रामनगर तक रेल और बस सेवा उपलब्ध है, उससे आगे के लिये टैक्सी आराम से मिल जाती है। रामनगर में रहने और खाने के लिये कई स्तरीय होटल उपलब्ध है। आप यहां से जिम कार्बेट पार्क भी जा सकते हैं।
 इस लेख में श्रीमती हेमा उनियाल द्वारा लिखित पुस्तक कुमाऊं के प्रसिद्ध मन्दिर द्वारा भी सहायता ली गई है।


Monday, September 10, 2012

बिजली महादेव मंदिर, कुल्लू-BIJLI MAHADEV, KULLU



देवी-देवताओं का स्थान होने के कारण कुल्लू जिला को देवभूमि माना जाता है। जिला मुख्यालय के साथ लगते पर्वत पर स्थित खराहल घाटी है। घाटी की चोटी पर स्थित भोलेनाथ का मंदिर। इस मंदिर को बिजली महादेव के नाम से जाना जाता है। यह जिला के प्रमुख देवस्थलों में से एक है। यहां पहुंचकर श्रद्धालुओं को प्रकृति का खूबसूरत नजारा भी देखने को मिलता है। इस नजारे को देखकर एकदम कश्मीर का एहसास हो जाता है।

यूं तो इस स्थल पर सालभर स्थानीय लोगों और देशी-विदेशी पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता है लेकिन श्रावण माह में यहां एक विशाल मेले का आयोजन होता है। श्रावण महीने में यहां अच्छी खासी भीड़ रहती है। शिवरात्रि को भी यहां विशेष आयोजन होता है। इस दिन भोलेनाथ के साथ बर्फ के भी दर्शन हो जाएं तो दृश्य नयनाभिराम हो जाता है।
लोककथा के अनुसार कालांतर में जालंधर नाम का एक दैत्य था, जिसे सागर पुत्र भी कहते हैं। उस राक्षस ने अपने तप से सृष्टि के रचयिता आदि ब्रहृम को जीत लिया था और अपने बल से जग के पालनहार विष्णु को भी बंदी बना लिया था व सभी देवताओं को पराजित कर त्रिलोक में उत्पात मचा रखा था। सभी उससे भयभीत थे। दैत्य त्रिलोक का स्वामी बनना चाहता था। कहते हैं कि इसी स्थान पर उसका शिवजी से भयंकर युद्ध हुआ था और भोलेनाथ ने उसे खत्म कर सभी देवताओं को उसके चंगुल से मुक्त करवाया था। जिस गदा से शिवजी ने उस दैत्य का वध किया था वह यहीं रखी गई और पिंडी के रूप में परिवर्तित हो गई, जो आज भी मौजूद है। इस विषत गदा को निर्विष करने के लिए इंद्रदेव ने आकाशीय बिजली गिराई। आज भी कुछ वर्षो के अंतराल में जब उक्त पिंडी पर बिजली गिरती है तो यह टुकड़े-टुकड़े हो जाती है। इसे जोड़ने के लिए मक्खन का इस्तेमाल होता है और शायद यह भी कारण है कि इसी वजह से इसका नाम बिजली महादेव पड़ा है।
File:Way to bijli mahadev temple.jpg

 एक अन्य कथा के अनुसार यहां साथ लगते गांव भ्रैण में एक बार एक औरत को भोलेनाथ के दर्शन मोहरे के रूप में हुए, जिसे उसने माश जिसे स्थानीय भाषा में माह कहते हैं, की तिजोरी में रखा और बाद में इसका नाम महादेव पड़ गया।
-बृजभूषण सिंह, कुल्लू, दैनिक जागरण 

Friday, September 7, 2012

MAA MUNDESHWARI DEVI - माँ मुंडेश्वरी देवी



शक्तिपीठ कामाख्या देवी, वैष्णो देवी, मैहर देवी, शारदा देवी, विंध्यवासिनी देवी और ज्वाला देवी की तरह प्रतिष्ठित मुण्डेश्वरी धाम भभुआ से 10 किलोमीटर पश्चिम-दक्षिण स्थित पंवरा पहाड़ी पर स्थित हैं। मंदिर परिसर में विद्यमान शिलालेखों से इसकी ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है। 1838 से 1904 ई. के बीच कई ब्रिटिश विद्वान व पर्यटक यहां आए। प्रसिद्ध इतिहासकार फ्रांसिस बुकनन भी यहां आ चुके हैं। मंदिर का एक शिलालेख कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में है। पुरातत्वविदों के अनुसार यह शिलालेख 349 ई.से 636 ई के बीच का है। मंदिर की नक्काशी व मूर्तियां उत्तर गुप्तकालीन हैं। शिलालेख के अनुसार यह मंदिर महाराजा उदय सेन के शासनकाल में निर्मित है। इसका निर्माण काल 635-636 ई. बताया जाता है। पंचमुखी शिवलिंग इस मंदिर में पंचमुखी शिवलिंग स्थापित है, जो अत्यंत दुर्लभ है। दुर्गा का वैष्णवी रूप ही मां मुण्डेश्वरी के रूप में यहां प्रतिस्थापित है। मुण्डेश्वरी की प्रतिमा वाराही देवी की प्रतिमा है, क्योंकि इनका वाहन महिष है। मुण्डेश्वरी मंदिर अष्टकोणीय है। मुख्य द्वार दक्षिण की ओर है। मंदिर में शारदीय और चैत्र नवरात्र के अवसर पर श्रद्धालु दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं। वर्ष में दो बार माघ और चैत्र में यहां यज्ञ होता है। नहीं होती जीव हिंसा मुण्डेश्वरी धाम की सबसे बड़ी और विलक्षण विशेषता है कि यहां पशु बलि की सात्विक परंपरा है। यहां बलि में बकरा चढ़ाया जाता है, लेकिन उसका जीवन नहीं लिया जाता। माता की चरणों में बकरे को रख कर पुजारी मंत्र पढ़ कर अक्षत-पुष्प डालते हैं। इसके बाद बकरा श्रद्धालु को वापस दे दिया जाता है। पशुबलि की यह सात्विक परंपरा अन्यत्र नहीं है।



भूकंप से हुई क्षति पुरातत्वविदों का मानना है कि इस इलाके में कभी भूकंप का भयंकर झटका लगा होगा, जिसके कारण पहाड़ी के मलबे के अंदर गणेश और शिव सहित अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां दब गई। खुदाई के दौरान ये मिलती रही हैं। यहां खुदाई के क्रम में मंदिरों के समूह भी मिले हैं। बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष आचार्य किशोर कुणाल का मानना है कि इस मंदिर को किसी आक्रमणकारी ने तोड़ा नहीं है, बल्कि प्राकृतिक आपदा तूफान-वर्षा, आंधी-पानी से इसका प्राकृतिक क्षरण हुआ है। पहाड़ी पर मूर्तियों के भग्नावशेष आज भी विद्यमान हैं। 1968 में पुरातत्व विभाग ने यहां की 97 दुर्लभ मूर्तियों को सुरक्षा की दृष्टि से पटना संग्रहालय में रखवा दिया। तीन मूर्तियां कोलकाता संग्रहालय में हैं। पहाड़ी के शिखर पर स्थित मुण्डेश्वरी मंदिर तक पहुंचने के लिए 1978-79 में सीढ़ी का निर्माण किया गया। वर्तमान में इसका तेजी से विकास हो रहा है और दूर-दूर से श्रद्धालु व पर्यटक यहां आते हैं। मंदिर को 2007 में बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद ने अधिग्रहित कर लिया था। इसके प्रयास से ढाई एकड़ जमीन पर्यटन विभाग को सौंपी गई। धर्मशाला और यज्ञशाला का निर्माण कराया गया। आधुनिकतम कैफेटेरिया का निर्माण जारी है। श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए वैष्णो देवी और राजगीर की तर्ज पर यहां रोप-वे बनाने का कार्य चल रहा है। मोहनियां और बेतरी गांव के पास भव्य मुण्डेश्वरी प्रवेश द्वार बनाया गया है। यहां पर अतिथिगृह भी बना है। मंदिर का ध्वस्त गुंबद बनाने की भी कोशिशें भारतीय पुरातत्व विभाग की ओर से हो रही हैं। पुरातत्व विभाग के पास उस काल के गुंबद का नक्शा उपलब्ध है। इस साल बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के कैलेंडर में माता मुण्डेश्वरी मंदिर का चित्र पहली बार शामिल किया गया है। 

साभार : दैनिक जागरण,

Thursday, September 6, 2012

यहां देवी के सिर छत नहीं, माँ शिकारी देवी मंदिर

माँ शिकारी देवी मंदिर 




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जैहली घाटी ने देशी व विदेशी पर्यटकों के लिए एक अच्छा खासा प्लेटफार्म तैयार कर लिया है। रोजाना सैकड़ों पर्यटक घाटी में विचरण करते देखे जा सकते हैं। मण्डी से जंजैहली बस स्टैंड तक की दूरी लगभग 86 किमी है। किसी भी वाहन अथवा बस द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है। रास्ते में चैलचौक, काण्ढा, बगस्याड तथा थुनाग आदि छोटे-छोटे कस्बे आते हैं जहां पर आप रुककर इस घाटी के मनोरम दृश्यों से अपनी यात्रा में नया जोश भरते हैं। इन जगहों से आप अपनी जरूरत का सामान भी खरीद सकते हैं। जंजहैली से दो किलोमीटर पीछे पांडवशिला नामक स्थान आता है जहां आप उस भारी-भरकम चत्रन के दर्शन कर पाएंगे जो मात्र आपकी हाथ की सबसे छोटी अंगुली से हिलकर आपको अचंभित कर देगी। इस चत्रन को महाभारत के भीम का चुगल (हुक्के की कटोरी में डाला जाने वाला छोटा-सा पत्थर) माना जाता है और इसकी पूजा की जाती है। ढलानदार खेतों में चारों ओर फैली आलु और मटर के खेतों की हरियाली मन मोह लेती है। जब हम जंजैहली पहुंचते हैं तो हम खुद को एक अलग ही दुनिया में पाते हैं। जंजैहली सुंदर व शहर के शोर-शराबे से दूर एक शांत गांव है। यहां सेब, पलम, नाशपाती, खुमानी आदि फलों की सीजन पर भरमार रहती है। जंजैहली बस स्टैंड के साथ ही ढीमकटारु पंचायत की सीमा शुरू हो जाती है। यह पंचायत प्राकृतिक सौंदर्य का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती है। यदि समय हो तो यहां के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अवश्य शामिल होइए। घाटी में अन्य स्थल हैं जो खूबसूरती और रोमांच से भरे पड़े हैं। भुलाह जंजैहली से 6 किमी की दूरी पर आता है रमणिक स्थल भुलाह जिसे एक बार देख लें तो भुले से भी न भूले। भुलाह तक पक्की सड़क है। कोई भी बस यहां तक ही आती है। भुलाह ट्रैकरों, पर्यटकों व श्रद्धालुओं का पहला पड़ाव स्थल भी माना जा सकता है क्योंकि इसके बाद शिकारी पर्वत की चोटी तक चढ़ाई शुरू हो जाती है। थोड़ा सा मैदानी होने और चारों ओर से देवदार, बान आदि के पेड़ों से घिरा होने के कारण इस स्थान की सुंदरता देखते ही बनती है। भुलाह काफी-कुछ चंबा जिले के खजियार जैसा है जिसे हिमाचल का मिनी स्विट्जरलैंड कहा जाता है। बूढ़ा केदार इस स्थल के लिए पैदल ही जाना पड़ता है। जंजैहली से ही आप इस रास्ते पर हो लेते हैं। पूरा रास्ता चढ़ाई वाला है। यहां पर रहने वाले गुज्जरों के लिए यह रोज का रास्ता है। ये जंजैहली तक दूध, घी व खोया आदि पहुंचाते हैं और बदले में मिलने वाले धन से राशन व जरूरत का अन्य सामान ले जाते हैं। यह गुज्जर समुदाय सर्दी में इन इलाकों को छोड़ कर मैदानी इलाकों में अपने पशुओं के साथ चले जाते हैं और गर्मियों में ये फिर से वापिस अपने-अपने दड़बों को आबाद करते हैं। किवदंती है कि बूढ़ा केदार में भीम से बचने के लिए नंदी बैल एक बड़ी चत्रन में कूदे और सीधे पशुपतिनाथ मंदिर पहुंचे थे। चत्रन में आज भी बड़ा सा सुराख है जिसके अंदर जाकर पूजा-अर्चना की जाती है। यहां स्थित छोटे से झरने के नीचे स्नान करना भी पवित्र माना जाता है। शिकारी देवी पर्वत जंजैहली में इतनी संख्या में पर्यटकों के पहुंचने का प्रमुख कारण यदि माता शिकारी देवी के प्रति अटूट आस्था व भक्ति भावना को माना जाए तो गलत न होगा। इस भक्ति भावना को बल देती है प्राकृतिक सौंदर्य से लबालब यह घाटी। भुलाह से आगे शिकारी देवी मंदिर लगभग 11 किमी की दूरी पर स्थित है। मंदिर तक सड़क सुविधा है। किसी भी छोटी गाड़ी में आप इस दूरी को तय कर सकते हैं लेकिन पैदल चला जाए तो आप रोमांच से भर उठेंगे। शिकारी देवी का मंदिर इस पर्वत पर स्थित होने के कारण इसे शिकारी पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। शिकारी मंदिर तक पहुंचने के कई रास्ते हैं। लेकिन जंजैहली से मुख्यतया दो रास्ते मंदिर तक जाते हैं। एक बूढ़ा केदार तीर्थ स्थल से तथा दूसरा भुलाह से होकर। दोनों रास्तों से जाने का अपना ही मजा है। भुलाह से सड़क मार्ग उपलब्ध है जबकि बूढ़ा केदार से आपको पैदल ही खड़ी चढ़ाई तय करनी पड़ती है। यह मार्ग ट्रैकरों के लिए अति उत्तम है। जंजैहली में टै्रकिंग हॉस्टल भी है। प्राकृतिक नजारों का आनंद लेना हो तो ऐसी जगहों पर पैदल चलना ही बेहतर होता है। शिकारी देवी पर्वत के लिए आप सड़क के बजाए भुलाह नाले से होते हुए जाएं तो एक अलग रोमांचकारी अनुभव से सराबोर होंगे। बड़ी-बड़ी चत्रनों से प्रस्फुटित झरने, कल-कल बहते पानी का संगीत और लंबे-लंबे देवदार के वृक्षों से घिरा यह नाला हर किसी को आकर्षित करने में पूर्णतया सक्षम है। नाले वाला रास्ता शार्टकट है। इस नाले पर एक नई चीज जो पहली बार हमने देखी वह था गहरे भूरे रंग का जंगली घोंघा (स्थानीय लोगों के अनुसार) जो बिलकुल ही अलग-सा था। वह आम व्यक्ति के अंगूठे से भी मोटा और लगभग 6 इंच लंबा था। इस नाले से आप लड़वहाच होते हुए सीधे सिंगरयाला पहुंचेंगे। बुजुगरें या पैदल न चल सकने वालों के लिए सड़क मार्ग से जाने का भी अपना मजा है। कल्पना लोक-सा शिकारी देवी मंदिर का यह स्थान अनोखे अहसास से सराबोर कर देता है। आस-पास की चोटियों से सबसे ऊपर होने के कारण ऐसा लगता है जैसे हम आकाश में उड़ रहे हों। समुद्रतल से इस स्थान की ऊंचाई 9000 फुट है। शिकारी देवी मंदिर हिमाचल का एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसकी छत नहीं है। कहा जाता है कि देवी अपने ऊपर किसी भी तरह की छत स्वीकार नहीं करती। शिकारी देवी का मंदिर पांडवों द्वारा निर्मित है। वनवास काल के दौरान पांडव यहां रुके थे। कहा जाता है कि माता की मूर्तियों के ऊपर कभी भी बर्फ नहीं टिकती, चाहे जितनी भी बर्फ क्यों न गिर जाए। पर्यटकों के पड़ाव का यह दूसरा स्थान है। चाहें तो माता के दर्शन के उपरांत यहां से लौट भी सकते हैं लेकिन शिकारी देवी मंदिर की दक्षिण-पश्चिम दिशा में जो सौंदर्य बिखरा पड़ा है उसे करीब से देखे बगैर प्रकृति प्रेमियों का जाने का मन नहीं करेगा। पृष्ठ 3 का शेष यहां देवी के सिर छत नहीं शिकारी देवी मंदिर की दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर जब हम उतरते जाते हैं तो हम उस प्राकृतिक खूबसूरती के और करीब होते जाते हैं। कुछ ही समय में शिकारी देवी मंदिर हमारी आंखों से ओझल हो जाता है। आगे का सफर हमें घने जंगल और पथरीले रास्ते से ले जाता है। इस रास्ते पर चलते हुए पश्चिम में नीचे की ओर हमें दीदार होता है एक छोटे से सुंदर इलाके देवीदहड़ का। इस क्षेत्र का असीम सौंदर्य हमें अपने मोहपाश में बांध देता है। इस इलाके के लोगों की कठिन लेकिन शांत जीवनशैली हमें हर मुश्किलों से लड़ने की प्रेरणा देती है। यहां का पांच पेड़ों का एक पेड़ हमें हैरत में डाल देता है। यहां माता मुंडासन का अति सुंदर मंदिर दर्शनीय है। यहां ठहरने के लिए आप वन विभाग का विश्राम गृह बुक करवा कर इस वादी को तसल्ली से निहारने का आनंद ले सकते हैं। देवीदहड़ के लिए दूसरा रास्ता वाया तुना, धंग्यारा होकर है जो चैलचौक से एक किलोमीटर आगे जंजैहली रोड़ से इस दिशा की ओर मुड़ जाता है। इस रास्ते से आप गाड़ी द्वारा यहां आराम से पहुंच सकते हैं। गर्मी के मौसम में यहां की स्थानीय सब्जी लिंगड़ यहां बहुतायत में मिल जाती है। इसका अपना ही एक खास स्वाद होता है। कमरुनाग जहां से हम देवीदहड़ के लिए नीचे उतरते हैं वहीं से ही एक रास्ता हमें सीधा कमरुनाग (पांडवों के आराध्य देव) मंदिर तक ले जाता है। शिकारी मंदिर से कमरुनाग मंदिर तक का रास्ता तय करने में 7 से 8 घंटे (यदि देवीदहड़ न जाएं) का समय लग जाता है। इस रास्ते को पैदल ही तय करना पड़ता है। बेहद थका देने वाले इस रोमांचक सफर में हवा के ठंडे झोंके और हर कदम पर दिखने वाले खूबसूरत नजारे हमें ऊर्जायमान रखते हैं। कमरुनाग मंदिर के साथ एक झील भी है जिसे कमरु झील कहा जाता है। किवदंती के अनुसार कमरुनाग पांडवों के आराध्य देव हैं। आप यदि सरायों में रुकना चाहें तो यहां ठहर भी सकते हैं। आगे 7-8 घंटे का पैदल सफर तय करके सुंदरनगर की ओर सड़क मार्ग पर रोहांडा पहुंच सकते हैं। कब व कैसे वैसे गर्मी का मौसम जंजैहली घाटी को निहारने के लिए अति उत्तम है। लेकिन आप अप्रैल से अक्टूबर तक इस वादी में विचरण कर सकते हैं। चंडीगढ़-मनाली नेशनल हाईवे या पठानकोट-जोगिंदरनगर मार्ग द्वारा सुंदरनगर या मंडी पहुंचकर यहां से आगे जंजैहली के लिए (86 किमी) सफर बस या छोटी गाड़ी से किया जा सकता है। एक अन्य रास्ता मंडी से ही वाया पण्डोह, बाड़ा, कांढा होकर (76 किमी) भी है जो पहले रास्ते से छोटा तो है लेकिन उससे थोड़ा तंग है। इस मार्ग से आप व्यास नदी पर बने पण्डोह बांध की खूबसूरती का मजा ले सकते हैं। हवाई मार्ग से भी जंजैहली पहुंचा जा सकता है लेकिन इसके लिए पहले आपको भुंतर (कुल्लू) एयरपोर्ट जाना पड़ेगा फिर पीछे मंडी की ओर आना पड़ेगा। कहां ठहरें जंजैहली में लोक निर्माण विभाग, वन विभाग का रेस्ट हाउस और अन्य निजी होटल व सराय हैं जो आम तौर पर सस्ते हैं और बुनियादी सुविधाओं से संपन्न हैं। आप इनमें सहज महसूस करेंगे। तो फिर देर किस बात की है। आइए चलें, दुनिया के शोर-शराबे से दूर जंजैहली घाटी की वादियों में, दो पल आस्था व सुकून के बिताने। अब हम जंजैहली की पश्चिम दिशा की तरफ इसके दूसरे छोर अर्थात सुंदरनगर की ओर होते हैं। यह 6 किमी का पूरा रास्ता ही उतराई वाला है। उतर कर हम पहुंचते है रोहांडा। रोहांडा में एक छोटा-सा बस स्टेशन है जो सुंदरनगर-करसोग मार्ग पर स्थित है। इस मार्ग द्वारा करसोग, शिमला, काजा, किन्नौर भी जाया जा सकता है। यहां से चंडीगढ़-मनाली नेशनल हाईवे-21 मात्र 35 किमी दूर है। रोहांडा एक छोटा-सा कस्बा है। यहां से जरूरत की हर वस्तु खरीदी जा सकती है। रोहांडा से बस, जीप व अन्य वाहन द्वारा नेशनल हाईवे तक पहुंचा जा सकता है। यहां पर हमारी यह धार्मिक व रोमांचक यात्रा संपन्न हो जाती है।

साभार : दैनिक जागरण 

Wednesday, September 5, 2012

हसीन वादियों के बीच भक्ति रजरप्पा


 झारखंड की राजधानी रांची से करीब 80 किलोमीटर की दूरी पर रजरप्पा में स्थित मां छिन्नमस्तिका का मंदिर धार्मिक महत्व के साथ पर्यटन के लिहाज से भी अनुपम स्थान है। प्रकृति के सुरम्य नजारों के बीच बसा भक्ति का यह पावन स्थान कई खूबियां समेटे है। यह धर्म क्षेत्र सैलानियों को पहली नजर में ही लुभाता है। रामगढ़ जिले में स्थित यह क्षेत्र कोयला उत्पादन के लिए भी जाना जाता है। रामगढ़ को बोकारो व धनबाद से जोड़नेवाले राष्ट्रीय राजमार्ग 23 पर रामगढ़ से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर रजरप्पा मोड़ है। इस मोड़ से बोकारो शहर की दूरी 58 किलोमीटर है, जबकि मोड़ से रजरप्पा मंदिर की दूरी 10 किलोमीटर है। मोड़ पर बना बड़ा सा प्रवेश द्वार यहां पहुंचते ही सैलानियों का स्वागत करता है। मंदिर की ओर बढ़ते ही सड़क के दोनों ओर जंगल और छोटी-छोटी पहाडि़यों की श्रृंखला प्रकृति के अनुपम नजारों के साथ अपनी विशिष्टता का बोध कराती है। प्राचीन काल में यह स्थान मेधा ऋषि की तपोस्थली के रूप में जाना जाता रहा है। हालांकि वर्तमान में उनसे जुड़ा कोई चिन्ह यहां नजर नहीं आता। श्रीयंत्र का स्वरूप छिन्नमस्तिका दस महाविद्याओं में छठा रूप मानी जाती है। यह मंदिर दामोदर-भैरवी संगम के किनारे त्रिकोण मंडल के योनि यंत्र पर स्थापित है, जबकि पूरा मंदिर श्रीयंत्र का आकार लिए हुए है। लाल-नीले और सफेद रंगों के बेहतर समन्वय से मंदिर बाहर से काफी खूबसूरत लगता है। इसी परिसर में अन्य नौ महाविद्याओं का भी मंदिर बनाया गया है। मुख्य मंदिर में देवी छिन्नमस्तिका की काले पत्थर में उकेरी गई प्रतिमा विराजमान है। दो साल पहले मूर्ति चोरों ने यहां मां की असली प्रतिमा को खंडित कर आभूषण चुरा लिए थे। इसके बाद यह प्रतिमा स्थापित की गई। पुरातत्ववेत्ताओं की मानें तो पुरानी अष्टधातु की प्रतिमा 16वीं-17वीं सदी की थी, उस लिहाज से मंदिर उसके काफी बाद का बनाया हुआ प्रतीत होता है। मुख्य मंदिर में चार दरवाजे हैं और मुख्य दरवाजा पूरब की ओर है। इस द्वार से निकलकर मंदिर से नीचे उतरते ही दाहिनी ओर बलि स्थान है, जबकि बाईं और नारियल बलि का स्थान है। इन दोनों बलि स्थानों के बीच में मनौतियां मांगने के लिए लोग रक्षासूत्र में पत्थर बांधकर पेड़ व त्रिशूल में लटकाते हैं। मनौतियां पूरी हो जाने पर उन पत्थरों को दामोदर नदी में प्रवाहित करने की परंपरा है। मंदिर में उत्तरी दीवार के साथ रखे शिलाखंड पर दक्षिण की ओर मुख किए छिन्नमस्तिका के दिव्य स्वरूप का दर्शन होता है। शिलाखंड में देवी की तीन आंखें हैं। इनका गला सर्पमाला और मुंडमाल से शोभित है। बाल खुले हैं और जिज्ज बाहर निकली हुई है। आभूषणों से सजी मां नग्नावस्था में कामदेव और रति के ऊपर खड़ी हैं। दाएं हाथ में तलवार और बाएं हाथ में अपना कटा मस्तक लिए हैं। इनके दोनों ओर मां की दो सखियां डाकिनी और वर्णिनी खड़ी हैं। देवी के कटे गले से निकल रही रक्त की धाराओं में से एक-एक तीनों के मुख में जा रही है। कुंडों की महत्ता यहां मुंडन कुंड पर लोग मुंडन के समय स्नान करते हैं जबकि पापनाशिनी कुंड को रोगमुक्ति प्रदान करनेवाला माना जाता है। सबसे खास दामोदर और भैरवी नदियों पर अलग-अलग बने दो गर्म जल कुंड हैं। नाम के अनुरूप ही इनका पानी गर्म है और मान्यता है कि यहां स्नान करने से चर्मरोग से मुक्ति मिल जाती है। इसके अलावा दुर्गा मंदिर (लोटस टेंपल) के सामने भी एक तालाबनुमा कुंड है, जिसे कालीदह के नाम से जाना जाता है। इसका प्रयोग भी लंबे समय तक स्नान-ध्यान, पूजा के लिए जल लेने आदि कायरें के लिए होता रहा पर फिलहाल प्रयोग कम होने के कारण कुंड का पानी गंदा हो गया है। विराट शिवलिंग छिन्नमस्तिका के मंदिर से सटा शिव का मंदिर है जहां 15 फीट ऊंचा विशाल शिवलिंग पूजा-पाठ के साथ पर्यटकों के लिए भी खास आकर्षण का केंद्र है। मंदिर परिसर में ही 10 महाविद्याओं का मंदिर अष्ट मंदिर के नाम से विख्यात है। यहां काली, तारा, बगलामुखी, भुवनेश्वरी, भैरवी, षोडसी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, मातंगी और कमला की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इसके अलावा सूर्य का भव्य मंदिर व दुर्गा मंदिर भी आसपास ही हैं। सफेद संगमरमर से कमल के आकार का बना दुर्गा मंदिर अपनी भव्यता के कारण लोटस टेंपल के नाम से जाना जाता है। यहां देवी दुर्गा के अपराजिता स्वरूप की पूजा होती है। विराट मंदिर में कृष्ण के विराट रूप की पूजा होती है। यह प्रतिमा 25 फीट की है। इन दोनों मंदिर के बीच लक्ष्मी की आठ प्रतिमाएं- ऐश्वर्य लक्ष्मी, संतान लक्ष्मी, गज लक्ष्मी, धान्य लक्ष्मी, धन लक्ष्मी, विजया लक्ष्मी, वीरा लक्ष्मी व जया लक्ष्मी स्थापित हैं। इसके अलावा मनसा, मधुमति, पंचमुखी हनुमान, उतिष्ठ गणपति, भगवान शिव, बटुक भैरव, सोनाकर्षण भैरव आदि देवी-देवताओं के मंदिर भी आसपास ही हैं। बटुक-भैरव मंदिर में अन्य प्रसाद के अलावा मांस-मछली, शराब, सिगरेट आदि का भी भोग लगता है। उपासना के साथ मस्ती रजरप्पा आनेवाले पर्यटक नौका सैर का आनंद लेना नहीं भूलते। मंदिर के नीचे दामोदर-भैरवी संगम के पास नाव की सवारी की सुविधा है। नौका पर बैठ नदी की लहरों पर दूर तक सवारी करना और झरने के पास जाकर प्राकृतिक फव्वारे को निहारते हुए तस्वीरें खिंचाना पर्यटन के आनंद को कई गुणा बढ़ा देता है। संगम स्थल में दामोदर नदी के ऊपर भैरवी नदी गिरती है। पत्थरों के बीच से गुजरती नदियां मिलन स्थल पर झरने सा दृश्य उपस्थित करती है, लोग घंटों इस प्रकति के इस खूबसूरत नजारे को निहारते हुए सुखद अनुभूति करते हैं। छठ के मौके पर नदी के दोनों ओर के विभिन्न घाटों को सजाया जाता है। यहां दामोदर और भैरवी को काम और रति का प्रतीक माना गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार दामोदर को नद माना गया है, जबकि भैरवी को नदी। दोनों नदियां यहां मिलने के बाद भेड़ा नदी के नाम से बहते हुए तेनुघाट डैम पहुंचती हैं। मंदिर में दीपावली के समय कालीपूजा बड़े धूमधाम से की जाती है। इसके अलावा वैशाख चतुर्दशी को छिन्नमस्तिका जयंती पर भी खास आयोजन होते हैं। नवरात्र के समय भी यहां खास अनुष्ठान और उत्सव होते हैं। अमावस्या, पूर्णिमा व अन्य त्योहारों के मौके पर भी विशेष पूजा होती रहती है। शक्तिपीठ होने की वजह से रजरप्पा तंत्र साधना के लिए भी प्रसिद्ध है। मंदिर से उत्तर की ओर थोड़ी दूरी पर दामोदर नदी के ऊपर तांत्रिक घाट है जहां तांत्रिक तंत्र साधना करते नजर आते हैं। पूजा का समय मंगला आरती: सुबह 4.30 बजे भोग: दोपहर 12 बजे श्रृंगार व आरती: शाम 7 बजे भीड़ से बचना हो तो: वैसे तो यहां रोज ही श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है लेकिन रविवार को छु˜ी का दिन व शक्ति उपासना का दिन होने की मान्यता के कारण श्रद्धालुओं की लंबी कतार रहती है। इसके अलावा शादी-विवाह व मुंडन मुहूर्त के समय यहां भारी भीड़ उमड़ती है। आम दिनों में मंदिर में पूजा के लिए ज्यादा भीड़ दोपहर से पहले तक ही रहती है। रांची से आवागमन रांची से रजरप्पा रामगढ़ होकर सीधे जा सकते हैं। वैसे ओरमांझी से गोला होकर व नामकुम से मुरी-सिल्ली होते हुए भी रजरप्पा पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं। राच्य पर्यटन विकास निगम ने रांची से सीधे रजरप्पा के लिए बस सेवा भी शुरू की है। इन बसों का समय रांची से सुबह 8.20 व 9.20 बजे और रजरप्पा से 1.30 व 3 बजे है। रजरप्पा बरकाकाना रेलवे स्टेशन से 40 किलोमीटर, रांची से 80 किमी और बोकारो से 68 किमी दूर है। रुकने के स्थान रजरप्पा आनेवाले लोग ज्यादातर अपने रुकने का इंतजाम आसपास के शहरों- रामगढ़, रांची, बोकारो या धनबाद में करते हैं। मंदिर से 10 किलोमीटर दूर रजरप्पा मोड़ के पास नेशनल हाईवे पर रुकने व खाने-पाने के लिए कई अच्छे होटल हैं। वैसे मंदिर के पास सीसीएल और वन विभाग के गेस्ट हाउस हैं। मंदिर के दूसरी छोर पर जिला परिषद का डाकबंगला भी है, लेकिन इन स्थलों पर रुकने के लिए संबंधित विभाग से अनुमति लेनी होती है। मंदिर परिसर में कई धर्मशालाएं भी हैं जहां उतनी अच्छी सुविधाएं तो नहीं लेकिन जरूरत पड़ने पर लोग इनका इस्तेमाल करते हैं। मंदिर के पास स्थित छोटे-छोटे कई होटल भी हैं।


साभार : दैनिक जागरण 

Monday, September 3, 2012

तवांग मठ




तवांग मठ अरुणाचल प्रदेश के तवांग शहर में स्थित एक बौद्ध मठ है। इसकी सुंदरता के कारण इसे धरती का छुपा स्वर्ग भी कहा जाता है । तवांग भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में अरुणाचल प्रदेश राज्य के पश्चिमोत्तर भाग में स्थित है। 1962 के युद्ध में भारत के पराजय के बाद चीन ने इस पर कब्ज़ा कर लिया था लेकिन बाद में इस इलाके कों चीनी सेना ने खुद होकर खाली कर दिया। लेकिन चीन आज भी तवांग और अरुणाचल प्रदेश कों चीन का 
हि हिस्सा मानता है।

तवांग मठ का निर्माण मेराक लामा लोड्रे ग्यात्सो ने 1680-81 ई. में कराया था। तवांग मठ एक पहाड़ी पर बना हुआ है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 10,000 फीट है। यहाँ पर कई छोटी नदियाँ भी बहती हैं। यहाँ से पूरी त्वांग-चू घाटी के ख़ूबसूरत दृश्य देखे जा सकते हैं। तवांग मठ दूर से क़िले जैसा दिखाई देता है। पूरे देश में यह अपने प्रकार का अकेला बौद्ध मठ है। तवांग मठ एशिया का सबसे बडा बौद्ध मठ है। तवांग मठ में 700 बौद्ध साधू ठहर सकते हैं। तवांग मठ के पास एक जलधारा भी बहती है। यह जलधारा बहुत ख़ूबसूरत है और यह मठ के लिए जल की आपूर्ति भी करती है। तवांग मठ का प्रवेश द्वार दक्षिण में है। प्रवेश द्वार का नाम काकालिंग है। काकालिंग देखने में झोपडी जैसा लगता है और इसकी दो दीवारों के निर्माण में पत्थरों का प्रयोग किया गया है। इन दीवारों पर ख़ूबसूरत चित्रकारी की गई है, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आती है।

साभार : भारत उदय, फेसबुक 

वृहद और अतुल्य बृहदीश्वर



तंजावूर कई साम्राज्यों के शासन का साक्षी रहा है। इनमें चोल राजाओं ने अपनी सत्ता का विस्तार तो किया ही, साथ में वे धर्म के प्रति आस्थावान होने के चलते कला व शिल्प के पारखी व प्रोत्साहक भी रहे। प्रमाणस्वरूप उनके काल में बने दर्जनों भव्य मंदिर आज भी यहां हैं। इन मंदिरों में सबसे भव्य बृहदीश्वर मंदिर है जो भारत में बनी उन सीमित मानव निर्मित संरचनाओं में से एक है जिसकी अतुल्यता के कारण उसका स्थान यूनेस्को की विश्वविरासत सूची में दर्ज है। मंदिर की भव्यता, विशालता व स्थापत्य को देख चोलों की शक्ति, आराध्य शिव के प्रति अटूट आस्था व संकल्प का अनुमान भर लगाया जा सकता है। इस मंदिर का डिजाइन संरचनात्मक दृष्टि से मजबूत व टिकाऊ होना भी इस बात का परिचायक है कि प्राचीन समय में भी भारतीय वास्तुकार संरचनात्मक अभियांत्रिकी में दक्ष थे। यह काल भारतीय स्थापत्य कला का स्वर्ण काल था जब एक ओर पूरब में कलिंग की धरती पर वहां के राजा अपनी शैली में नायाब मंदिरों को बनवा रहे थे वहीं दक्षिण में चोल राजा द्रविड़ शैली में शानदार मंदिरों का निर्माण करवा रहे थे। ज्यादातर मंदिरों को उनके आराध्य के नाम से जाना जाता है लेकिन यह शिवमंदिर अपनी विशालता के कारण बड़ा मंदिर या बृहदीश्वर नाम से जाना जाता है। इसके दो दूसरे नाम पेरुवुडयार व राजराजेश्वर भी हैं। इसे वास्तुकार राजराजेश्वरन ने बनवाया था। माना जाता है कि इसका बृहदीश्वर नाम काफी बाद में प्रचलित हुआ। इसे बृहद की उपमा इसकी विशालता से ही मिली जो शिखर के दृष्टिकोण से दक्षिण भारत में सबसे ऊंचा प्राचीन मंदिर है जिसमें 14 मजिलें हैं। स्थापत्य के लिहाज से भी यह मंदिर द्रविड़ शैली के उन्नत अभियांत्रिकी विकास, मूर्तिकला व चित्रकला की विलक्षणता का उदाहरण है। बृहदीश्वर दक्षिण में बने दूसरे मंदिरों से कुछ भिन्न है। द्रविड़ शैली में बने मंदिरों में जहां गोपुरम मुख्य मंदिर की अपेक्षा काफी ऊंचे हैं वहीं बृहदीश्वर मंदिर में गोपुरम मुख्य मंदिर की अपेक्षाकृत छोटे हैं। मंदिर में प्रवेश मराठा द्वार से होता है। उसके बाद दो गोपुरम हैं। बाच् गोपुरम यानि केरलांतक तिरुवसल व अंतरंग गोपुरम यानि राजराजन तिरुवसल (प्रवेश द्वार) राजराजा चोल के काल में अलग-अलग समय पर बने। केरलांतक गोपुरम या बाच् गोपुरम राजराजा चोल ने चेरा राजाओं पर जीत के बाद बनवाया। 13वीं सदी के बाद आए नायक राजाओं ने मंदिर के बाहर किलेनुमा दीवार बनाकर उसे अभेद्य बनाया। वहीं 17वीं शती के बाद रहे मराठों ने मंदिर का बाच् द्वार बनाया और मेहराबों से सुसज्जित किया। ऊंचे शिखर के कारण बृहदीश्वर मंदिर नगर के कई भागों से दृष्टिगोचर होता है लेकिन इसकी विशालता का अहसास मंदिर में गोपुरम में प्रवेश करने पर हो जाता है। मंदिर की विशालता व संरचना देखने वाले को चमत्कृत कर देती है। मुख्य मंदिर के समक्ष चबूतरे पर बने एक मंडप में अधिकार नंदी की एकल प्रस्तर से बनी प्रतिमा सबका ध्यान खींचती है जो भारत में बनी दूसरी सबसे विशाल नंदी प्रतिमा है। यह 6 मीटर लंबी, 3.7 मीटर ऊंची व 2.6 मीटर चौड़ी है। मंदिर में आठों दिशाओं के स्वामी अष्ट दिग्पालकों इंद्र, वरुण, यम, कुबेर, वायु, निरुति, अग्नि और ईशान की 6 फुट ऊंची प्रतिमाएं दिखती हैं। मंदिर में प्रवेश के लिए सीढि़यां हैं जहां से मंदिर का मंडप है। मंदिर में पत्थरों से बने विशाल द्वारपालक दिखते है। मंडप के अंदर से ठीक सामने गर्भगृह है जहां विमान के ठीक नीचे वर्गाकार बने गर्भगृह में शिव विशाल शिवलिंग के रूप में स्थापित हैं। यह संपूर्ण मंदिर 120 मीटर चौड़ी व 240 मीटर लंबी आयताकार भूमि में निर्मित हुआ है जो दूसरे मंदिरों से थोड़ा अलग लगता है। इस मंदिर के विमान की ज्यामितीय संरचना गोलाकार न होकर पिरामिड का आकर लिए है जिसके शीर्ष पर 81 टन वजनी गुंबद है जो आठ पत्थरों से जोड़कर बनाया गया है। इसके बाद कलश आदि हैं। इसके शिखर की कुल ऊंचाई 60.96 मीटर है। यह मंदिर तो विशाल है ही, यहां स्थापित शिवलिंग भी 3.66 मीटर ऊंचा है। मंडप व मंदिर एक आयताकार चबूतरे पर बना है। मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार है। मुख्य मंदिर संरचना अधिक भार को सह सके इसलिए मंदिर के गर्भगृह को दोहरी दीवारों से बनाया गया है। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। गर्भगृह के ऊपर मंदिर का विमान है जिसका अंतरंग भाग खोखला है। मंदिर में पत्थरों को जोड़ने के लिए पत्थरों में गेंद व खांचे बना कर उनको बैठाया गया। मंदिर की बाहरी दीवार पर अलंकरण शानदार है। मंदिर के दो ओर बने मंडपों में अनेकानेक शिवलिंग हैं। तमिलनाडु के दूसरे मंदिरों को जिन स्थानों पर बनाया गया उनका अपना महात्म्य भी है लेकिन तंजावुर के इस मंदिर के स्थल के साथ ऐसी बात नहीं रही। मंदिर का निर्माण राजराजा चोल ने अपने शासन की 25वीं जयंती के अवसर पर कराया था जो सन 1003 में आरंभ होकर 1010 में पूर्ण हुआ। राजराजा चोल के बाद उनके पुत्र राजेंद्र चोल प्रथम (सन 1014-1044) ने सत्ता का विस्तार जारी रखा व पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए धर्म, कला व संस्कृति को प्रश्रय प्रदान किया। उन्होंने अपने काल में अलग से राजधानी का निर्माण किया जो गंगैकोंडचोलपुरम कहलाई। वहां पर उन्होंने तंजावुर की तरह ही बृहदीश्वर मंदिर का निर्माण करवाया जो तंजावुर के मंदिर से कुछ ही छोटा है। इससे तंजावुर का महत्व कम होने लगा। 13वीं सदी के मध्य तक चोलों की शक्ति क्षीण हो गई और वह बिखरने लगी। तंजावुर पर नायक राजाओं का आधिपत्य हो गया। लेकिन जो भी राजा यहां रहे उन्होंने इस मंदिर को महत्व दिया। नायकों के समय यहां पर विशाल नंदी को स्थापित किया गया व नंदी मंडप बनाया गया। वहीं पंड्यों ने सुब्रह्मण्यम मंदिर का निर्माण कराया। नायक शासकों में रघुनाथ नायक ने तंजावुर में महल का निर्माण किया। लेकिन 1675 तक आते-आते नायक रियासत पर अपनी पकड़ नहीं बरकरार रख सके और तंजावुर की रियासत मराठों के हाथ चली गई। मराठा शासक शाहजी ने यहां पर सिंहासन कक्ष बनाया और यहां पर सरायों व धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। उन्होंने पुराने महल में कई बदलाव किए। वहां पर कई पांडुलिपियों का संग्रहण किया। सरफरोजी द्वितीय ने अपने पूर्वजों के अलावा यहां रहे पूर्व शासकों के दस्तावेजों से लेकर धातु की मूर्तियों व पत्थर प्रतिमाओं का संग्रहालय बनाया। 1855 में अंग्रेजों ने इस पर कब्जा कर लिया। बृहदीश्वर मंदिर में सदियों से चले आ रहे विधि-विधान के अनुसार पूजा अर्चना होती है। सुबह शिवलिंग के श्रृंगार के बाद ही दर्शन हो पाते हैं। शिवलिंग का इतना भव्य रूप अन्यत्र कम ही दिखता है। इस मंदिर की पहचान अपनी अद्भुत संरचना व स्थापत्य कला के कारण है। यह यूनेस्को के द्वारा विश्व विरासत में शामिल तीन चोल मंदिरों में से है। अन्य दर्शनीय स्थल तंजावुर में कई और चीजें देखने को हैं। इनमें तंजावुर पैलेस, कला दीर्घा, सरस्वती महल पुस्तकालय, दरबार हाल व संग्रहालय प्रमुख हैं। यहां के महल को नायक राजाओं ने बनाया और उसके बाद मराठा शासकों ने इसमें विस्तार किया। महल के बाहर एक मंदिरनुमा आकृति है जो कुछ इस तरह से लगती है कि आक्रमणकारी इसे देख भ्रमित होकर इसे मंदिर समझें। इसके अंदर प्रवेश करने पर ही पता चलता है कि इसे एक योजनाबद्ध ढंग से डिजाइन किया गया था। इसके ऊपर की सबसे ऊंची मंजिल से नगर का दूर-दूर का नजारा देखा जा सकता है। यहां पर मराठा सैनिकों का आयुध भंडार हुआ करता था। वहीं महल में कई सज्जित कमरे हैं जहां उस दौर के राजाओं के उपयोग की वस्तुओं को रखा गया है। यहां कला दीर्घा में कांसे, पत्थर की मूर्तियां व दूसरी कलाकृतियां रखी गई हैं। निकट ही निजी प्रयासों से चल रहा सरस्वती महल पुस्तकालय है जिसे मराठा राजा सरफरोजी प्रथम ने अपने निजी प्रयास से जोड़ा था। वहां पर कई मध्यकालीन व बहुमूल्य पांडुलिपियां व पुस्तकें प्रदर्शित हैं। शाही संग्रहालय व दरबार हाल में उनके अस्त्र शस्त्र, रथ, निजी सामान रखा गया है। यहां पर तमिल विश्वविद्यालय में संग्रहालय देखा जा सकता है। सरफरोजी द्वारा स्थापित एक चर्च भी यहां पर है। कब. कैसे. क्या. उत्तर व पूरब से तंजावुर आने के लिए चेन्नई आना होता है। वैसे तंजावुर के सबसे निकट हवाई अड्डा तिरुचिरापल्ली में है जो यहां से 60 किमी दूर है। यहां के लिए चेन्नई से विमान सेवाए हैं। चेन्नई से तंजावुर रेल मार्ग से 320 किमी दूर है। कुछ नगरों से रेल सेवाएं सीधे तिरुचिरापल्ली तक भी हैं। तिरुचिरापल्ली या त्रिची से यहां सड़क मार्ग से आना अधिक सुविधापूर्ण है। राज्य के दूसरे नगरों से भी तंजावुर बस सेवाओं से अच्छी तरह से जुड़ा है। विश्वविरासत स्थल होने के कारण नगर में अच्छे होटल भी हैं तो मध्यम प्रकार की सुविधाएं भी खूब हैं। नगर में आने-जाने के लिए सिटी बस सेवा से लेकर टैक्सी व थ्री-व्हीलर उपलब्ध है। पोम्पुहार व दूसरे शो रूम से तंजावुर में बनने वाला कांसे व चांदी का हस्तशिल्प व हैण्डलूम खरीदा जा सकता है। घूमने का सबसे बेहतर समय नवंबर से मार्च के मध्य होता है। आसपास तंजावूर से 35 किमी दूर कुंभकोणम से लगे धरासुरम में ऐरावतेश्वर मंदिर है। यह मंदिर राजेंद्र चोल द्वितीय द्वारा निर्मित किया गया। मूर्तिकला की दृष्टि से यह अद्भुत है। तंजावुर से लगभग 60 किमी दूर गंगैकोंडाचोलपुर का बृहदीश्वर मंदिर है। यहां बृहदीश्वर मंदिर छोटा व दूसरी शैली से बना है। यह दोनों मंदिर भी यूनेस्को की विश्वविरासत सूची में शामिल हैं। तंजावुर के निकट ही मंदिरों की नगरी कुंभकोणम है।

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साभार : दैनिक जागरण, विकिपीडिया

अद्भुत और निराली मां बावे वाली


सूर्य पुत्री तविषी (तवी) नदी के पुल से गुजरते हुए हर जम्मूवासी का सिर और पलकें एक पल के लिए झुक जाती हैं। यह पुल से गुजरने का भय नहीं, बल्कि सामने नजर आ रही बावे वाली माता के प्रति श्रद्धा है। उन्हें विश्वास है कि बावे वाली माता हर मुश्किल में उनकी रक्षा करेगी। देवी महाकाली संहार की देवी मानी जाती है, लेकिन जब मानव मात्र द्वारा उनकी आराधना की जाती है तो वे संहारिका से संरक्षिका की भूमिका में आ जाती हैं। ऐसी ही है जम्मू स्थित मां बावे वाली। तविषी नदी के पूर्वी तट पर जम्मू से तकरीबन दो किलोमीटर की दूरी पर बावे इलाके में स्थित होने के कारण इसे बावे वाली माता कहा जाता है। यह मंदिर ऐतिहासिक बाहु किले के भीतर स्थित है। जम्मू राज्य के संस्थापक रहे राजा जम्बूलोचन के बड़े भाई बाहुलोचन के नाम पर इस किले का नाम है। मान्यता है कि जम्मू राज्य को अपनी राजधानी बनाने के बाद जब राजा ने देवी की मूर्ति का मुंह अपने नए महल मुबारक मंडी की ओर करना चाहा, तो वे लगातार नाकाम रहे। अंत में उन्होंने हाथियों की सहायता से देवी शिला को हिलाना चाहा, परंतु जब भी हाथी उस शिला को खींचते तो वे दर्द से चिंघाड़ने लगते। अंत में यह फैसला हुआ कि शक्ति यहीं स्थापित रहेंगी। तब से आज तक शक्तिरूप में यही है जम्मू वासियों की आराध्या। बाहु किले के भीतर इस मंदिर की स्थापना वर्ष 1822 से बताई जाती है। मंदिर के भीतर स्थापित शिला आदि कालीन है, लेकिन इस मंदिर का निर्माण महाराजा गुलाब सिंह के समय का बताया जाता है। मंदिर उत्तरोतर विकास की ओर है। पर्यटकों की सुविधा को देखते हुए अब पूरा ट्रैक पक्का करवा दिया गया है। कई कमरे और नए मंदिर भी मंदिर प्रांगण में बना दिए गए हैं। परंतु विकास की धूल कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को ढक भी रही है। आध्यात्मिक महत्व प्राचीन समय में वैष्णो देवी यात्रा केवल तीर्थ के तौर पर ही की जाती थी और इसका एक विशेष सर्किट होता था जिसकी शुरुआत नगरोटा स्थित कौल कंडोली मंदिर से होती थी। उसका अंत यहां बावे वाली माता मंदिर में होता था। वैष्णो देवी में मिलने वाले प्रसाद को जब बावे वाली माता मंदिर के प्रसाद के साथ मिलाया जाता था तभी उसे पूर्ण समझा जाता था। आज भी लोग बच्चों के मुंडन संस्कार और नव विवाहित जोड़ों को आशीर्वाद दिलवाने बावे वाली आते हैं। बलि का निराला अंदाज जम्मू-कश्मीर उन प्रगतिशील राज्यों में से है जो सुधारवादी फैसलों में अग्रणी रहा है। देश के अनेक शक्ति स्थलों की तरह यहां भी बलि प्रथा प्रचलित थी। लेकिन जिस बकरी को एक ही घाट पर शेर के साथ पानी पीते देख राजा जम्बूलोचन को अपनी राजधानी बसाने का ख्याल आया, उसी राज्य में बकरी की हत्या कैसे की जा सकती थी। इसलिए यहां बलि का एक अनूठा अंदाज अपनाया गया। बलि के लिए लाई गई बकरी को मंदिर के सामने निर्मित अहाते में बांध दिया जाता है और उस पर पानी के छींटे मारे जाते हैं। बकरी जब कंपकंपाकर अपने शरीर के बालों को झटकती है तो मान लिया जाता है कि देवी ने बलि स्वीकार कर ली। खास है मावे की बर्फी बावे वाली माता मंदिर के लिए प्रस्थान करते हुए आप देखेंगे कि दोनों और मावे की बर्फी की ढेरों दुकानें हैं। वास्तव में यही है बावे वाली माता के मंदिर का प्रसाद। मावे की यह बर्फी खुले बाजार में मिलने वाली बर्फी से बिल्कुल अलग है। इसे बनाने वाले भी खास है और बेचने वाले भी। शनि और मंगल को मेला बावे वाली माता मंदिर में दिन भर पर्यटकों और स्थानीय लोगों का तांता लगा रहता है, लेकिन यदि मंगलवार या शनिवार हो तब तो यह रौनक सुबह पांच बजे से ही शुरू हो जाती है। शहर के विभिन्न स्थानों से सुबह पांच बजे ही बावे के लिए मिनी बसें चलनी शुरू हो जाती हैं। इन दोनों दिन मंदिर में खास मेला लगता है। जिसमें झूले, खेल-खिलौने और लंगरों का भी आयोजन होता है। नवरात्र में तो यहां की रौनक देखते ही बनती है। माता के मंदिर तक जाने के लिए ड्योढ़ी से लेकर बाहु किले तक लगभग आधा किलोमीटर का पक्का ट्रैक बना हुआ है। जिसके दोनों और छोटी-छोटी दुकानें हैं। इनमें अधिकांश दुकानें प्रसाद की हैं। जबकि हर दस कदम पर आपको मेहंदी वाला और खिलौने वाला भी मिल जाएगा। इसी घुमावदार मिनी बाजार में आप जरूरत की लगभग हर चीज खरीद सकते हैं। स्वाद के चटखारे जम्मू की खास मानी जाने वाली कचालू की चाट यहां भी उपलब्ध है। इसके अलावा कुलचा छोले, कलाड़ी कुलचा, फ्रूट चाट, पूड़ी छोले सहित कई व्यंजनों का स्वाद यहां लिया जा सकता है। माता के दर्शन के बाद ड्योढ़ी से उतरते हुए यदि आप सामने नजर दौड़ाएं तो ढेरों की संख्या में आपको छोटे-छोटे खोमचे और रेहड़ी वाले नजर आ जाएंगें जिनके पास बर्गर, आइसक्रीम से लेकर गोल गप्पे तक का स्वाद मौजूद है। माता के दर्शन के बाद आप यहीं मुगल गार्डन और फिश एक्वेरियम का भी आनंद उठा सकते हैं। माता की ड्योढ़ी से नीचे उतरकर थोड़ी सी दूरी पर बाग-ए-बाहु मौजूद है। यहां आप सीढ़ीनुमा बाग, झरने और फव्वारों का भी आनंद ले सकते हैं। आपकी यादों को कैमरे में कैद करने के लिए फोटोग्राफर खुद आपको ढूंढ लेंगे। वहीं बाग के बिल्कुल साथ में उत्तर भारत का एकमात्र अंडरग्राउंड फिश एक्वेरियम है जहां अलग-अलग रंगों की दर्जनों प्रजाति की मछलियां देखी जा सकती हैं। पहुंचना है आसान बावे वाली माता मंदिर पहुंचने के लिए आपको शहर के किसी भी कोने से आराम से मिनी बस मिल जाएगी। शहर के किसी भी कोने से मंदिर पहुंचने के लिए एक व्यक्ति को मिनी बस में दस रुपये से अधिक नहीं खर्चने पड़ेंगे। लेकिन यदि आप मिनी बस की भीड़ में नहीं फंसना चाहते तो ऑटो रिक्शा और टैक्सी से भी पहुंचा जा सकता है। किले में चलती थी तोप वरिष्ठ लेखक केवल कृष्ण शाकिर कहते हैं पहले जब लोगों के पास घड़ी नहीं होती थी तब उन्हें समय की जानकारी देने के लिए इसी किले से तोप चलाई जाती थी। पहली तोप सुबह छह बजे लोगों को जगाने के लिए, दूसरी दोपहर के ठीक बारह बजे आधा दिन बीत जाने के बाद और तीसरी रात के दस बजे। इस तीसरी तोप के चलने के बाद जम्मू शहर के दरवाजे बंद हो जाया करते थे।

साभार : दैनिक जागरण