दक्षिण भारत में विष्णु भगवान को समर्पित अनेक मंदिरों में से एक महत्वपूर्ण मंदिर है- सिंहाचलम देवस्थान। यह मंदिर आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम शहर से लगभग 16 किमी. दूर एक 800 फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। सिंहाचलम का अर्थ है-सिंह की पहाड़ी। इसलिए इस मंदिर को सिंहाचलम कहा जाता है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यह भगवान विष्णु के एक नहीं दो अवतारों को समर्पित है। वराह अवतार और नरसिंह अवतार।
प्रचलित कथा
इस संदर्भ में एक पौराणिक कथा के अनुसार मंदिर की स्थापना भक्त प्रह्लाद द्वारा की गई थी। हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यप राक्षसों के अत्याचार से जगत को मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से भगवान विष्णु इन्हीं दो अवतारों में प्रकट हुए थे। पहले वराह अवतार लेकर उन्होंने हिरण्याक्ष का संहार किया उसके बाद जब भक्त प्रह्लाद पर हिरण्यकश्यप के अत्याचार बढ़ने लगे तो उन्होंने नरसिंह रूप में अवतार लिया क्योंकि हिरण्यकश्यप ने यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि न मनुष्य उसे मार सके न ही पशु, न वह दिन में मरे न रात को, न घर में भीतर उसे कोई मारे न घर के बाहर, न किसी अस्त्र से मरे न किसी शस्त्र से। तो भगवान विष्णु ने आधा नर और आधा पशु रूप में अवतार लेकर संध्याकाल में उसके महल की दहलीज पर उसका वध अपने तीक्ष्ण नखों द्वारा किया था। बाद में प्रह्लाद की प्रार्थना पर भगवान ने इसी पहाड़ी पर अपने दोनों अवतारों के रूप में उन्हे दर्शन दिए थे। भगवान के उन्हीं रूपों को ध्यान में रख प्रह्लाद ने यहां मंदिर का निर्माण कराया तथा उसमें वराह-नरसिंह रूप की प्रतिमा की स्थापना की।
मंदिर की पुन:स्थापना
कालांतर में सिंहाचलम पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर का महत्व घटने लगा। बहुत समय बाद राजा पुरुरवा अपनीप्रेयसी उर्वशी के साथ मार्ग में इस पहाड़ी पर रुके तो उर्वशी ने मंदिर में भगवान के इस अनोखे रूप के दर्शन किए। कहते है कि वह अक्षय तृतीया का दिन था और उसी समय आकाशवाणी हुई कि भगवान के तेज को शांत करने के लिए चंदन का लेप किया जाए। तब पुरुरवा ने चंदन के लेप से प्रतिमा को ढक दिया। तभी से आज तक प्रतिमा पर नित्य चंदन का आलेपन किया जाता है। पुरुरवा द्वारा इस मंदिर की पुन:स्थापना भी की गई।
वास्तु शिल्प का अद्भुत नमूना
वर्तमान मंदिर मूल रूप में 11वीं शताब्दी में बना था और 17वीं शताब्दी तक इसके वास्तु शिल्प में परिवर्तन भी हुआ। मंदिर में स्थित स्तंभ पर 11वीं से 17वीं शताब्दी तक के शिला लेख इस बात का प्रमाण हैं। मंदिर कावास्तुशिल्प दक्षिण भारतीय तथा द्रविड़ियन नागर शैली का मिला-जुला रूप है। इसका गोपुरम अत्यंत भव्य एवंप्रभावशाली है। गर्भगृह में वराह नरसिंह की लगभग ढाई फुट ऊंची प्रतिमा है, जिसमें भगवान त्रिभंगी मुद्रा में विराजमान है। गर्भगृह के सामने मंदिर का मुखमंडप है। यहां स्थित एक स्तंभ फूल, रेशमी कपड़े और चांदी से सजा है। नि:संतान दंपती इस स्तंभ के समक्ष संतान प्राप्ति हेतु प्रार्थना करते है। मंदिर के उलर में कल्याण मंडप है। जिसमें 96 नक्काशीयुक्त सुंदर स्तंभ है। मंदिर में भगवान के अन्य अवतार जैसे मत्स्य अवतार व धनवंतरी अवतार आदि की प्रतिमा भी है।
प्रतिवर्ष अक्षय तृतीया पर यहां चंदना यात्रा उत्सव होता है। उस दिन भगवान के वास्तविक दर्शन होते है क्योंकि वर्ष में उसी दिन प्रतिमा पर से चंदन का लेप हटाया जाता है। चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी पर यहां पांच दिन का कल्याणोत्सव भी एक महत्वपूर्ण पर्व के रूप में मनाया जाता है। इसमें भगवान विष्णु तथा लक्ष्मी के विवाह की परंपरा है। सिंहाचलम दक्षिण भारत का एक समृद्ध मंदिर है।
साभार : जागरण सखी