द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक। वर्तमान मंदिर का निर्माण पाण्डव वंशी जनमेजय द्वारा कराया गयामाना जाता है। आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में जीर्णोद्धार करवाया। केदार पर्वत श्रृंखला के बीचस्थित। मंदाकिनी नदी के समीप, 3562 मीटर की ऊंचाई। माना जाता है कि केदारनाथ के दर्शन किएबिना बद्रीनाथ के दर्शन का भी फल नहीं मिलता है। अन्य दर्शनीय स्थल- गांधी सरोवर, वासुकी ताल,ब्रह्मकुण्ड, हंसकुण्ड, भैरवनाथ, बुराडी ताल
गोमुख से निकली गंगा जी या भागीरथी के दर्शन हेतु सड़क मार्ग का अंतिम स्थान। वर्तमान गंगा मंदिर18वीं शताब्दी में निर्मित हुआ। समुद्र तल से 3,140 मीटर की ऊंचाई पर स्थित। भगवान श्रीरामचन्द्र जीके पूर्वज चक्रवर्ती राजा भगीरथ ने यहीं एक शिला पर बैठकर भगवान शंकर की आराधना की थी।महाभारत युद्ध के पश्चात पाण्डवों ने यहीं आकर अपने परिजनों की आत्मा की शांति के लिए देवयज्ञकिया था। 20 फीट ऊंचे सफेद संगमरमर के पत्थरों से निर्मित है यह मंदिर। यहां से गोमुख 19 किमी.दूरी पर, 3892 मीटर की ऊंचाई पर है। भैरों घाटी अत्यन्त रमणीय है।
देवी यमुना को समर्पित यह स्थल समुद्र तल से 3235 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह असित मुनी कानिवास स्थान था। तीर्थस्थल से मात्र 1 किमी. दूरी पर कालिंदी पर्वत के बीच 4421 मी. की ऊंचाई परयमुना नदी का उद्गम स्थल है। हनुमान चट्टी पर उतरकर 14 किमी. की पैदल यात्रा करके यमुनोत्रीपहुंचा जा सकता है। प्राकृतिक आपदाओं के कारण अनेक बार ध्वस्त व पुनर्निमित हुए इस मंदिर कावर्तमान स्वरूप 19वीं शदी में जयपुर की महारानी गुलेरिया द्वारा बनबाया गया माना जाता है।
वैसे तो सम्पूर्ण हिमालय एक तीर्थ क्षेत्र है। इसकी प्रत्येक घाटी तथा छोटी-बड़ी नदियों के तट पर तीर्थ स्थित हैं। किन्तु बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री तथा यमुनोत्री प्रमुख प्रचलित तीर्थस्थल हैं, जिनकी दुनिया भर में मान्यता है। यहां ऐसे अनेक ज्ञात-अज्ञात आस्था केन्द्र हैं जो सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व रखते हैं। पंचप्रयाग, पंचबद्री, पंचकेदार, नन्दादेवी, बैजनाथ, मायावती, ताड़केश्वर, कण्वाश्रम, कालीकुमाऊं, हनौल, आदिबद्री, पलेठी का सूर्य मन्दिर, बूढ़ाकेदार आदि-आदि। हिमालय में अधिक संख्या में शिवलिंग या शिवालय स्थापित हैं, इसी कारण केदारखण्ड को शिवक्षेत्र भी कहा गया है।
बद्रीनाथ
देश के चारों कोनों पर स्थित चार धामों में से एक है - बद्रीनाथ। इसका सम्बन्ध सतयुग से है, जबकि अन्य धामों का त्रेता, द्वापर तथा कलियुग से। श्री बद्रीनाथ के हर युग में नाम भी अलग-अलग हैं। सतयुग में इसे मुक्तिप्रदा, त्रेता मंे योगसिद्धिदा, द्वापर में विशाला तथा कलियुग में बद्रिकाश्रम के रूप में जाना जाता है। स्कन्धपुराण में इससे सम्बन्धित श्लोक मिलता है-
कृते मुक्तिप्रदा प्रोक्ता,
त्रेतायाम् योगसिद्धिदा।
विशाला द्वापरे प्रोक्ता,
कलौ बद्रिकाश्रमम्।।
मान्यता है कि इस धाम का महत्व तप के कारण से है। भगवान नारायण ने सृष्टि की रचना के पश्चात् जगत को कर्म मार्ग पर अग्रसर करने की भावना से स्वयं यहां तप के पश्चात् विष्णु वाहन होने की पदवी प्राप्त की थी। नारद को काम जीतने की शक्ति यहीं प्राप्त हुई। राम, कृष्ण आदि अवतारी पुरूषों द्वारा भी तप हेतु यहां आने के प्रमाण मिलते हैं। इसी मार्ग पर पाण्डवों का स्वर्गारोहण सर्वविदित है।
केदारनाथ
मन्दाकिनी के पावन तट पर स्थित है, केदारनाथ। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में 'हिमालये तु केदारम्' ऐसा उल्लेख है। यहां भगवान आशुतोष शिवशंकर सदा वास करते हैं। मन्दिर के गर्भगृह में भगवान शंकर ज्योतिर्लिंग स्वरूप शिला के रूप में स्थित हैं। इसके अग्रभाग में जगत्जननी पार्वती की सुशोभित प्रतिमा सहित अनेक मूर्तियां हैं तथा समीपवर्ती क्षेत्र में हंसकुण्ड, भैरवनाथ तथा नवदुर्गा आदि। यहीं कुछ दूरी पर बुराड़ी ताल, वासुकी ताल, भृगुपन्त्य तथा ब्रह्मकुण्ड आदि स्थित हैं, जो आध्यात्म तथा पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। वासुकी ताल में दुर्लभ पुष्प ब्रह्मकमल पाया जाता है। ये सभी स्थान केदारनाथ से 8 से 10 किलोमीटर की परिधि में हैं। मन्दिर के पार्श्व भाग में आद्यशंकराचार्य की समाधि है। इसे दण्डस्थल भी कहते हैं, जो सनातन धर्म की जीवन्तता का प्रतीक है।
कपाट खुलने का महत्व
कपाट खुलने के दिन का मुख्य आकर्षण उस दीपज्योति का दर्शन होता है, जो शीतकाल के लगभग छ: महीने पूजागृह में ज्योति अनवरत जलती रहती है। बद्रीनाथ तथा केदारनाथ मन्दिर के कपाट (द्वार) खुलने का लोकमान्य विधान आदिकाल से चला आ रहा है। यह मान्यता बनी हुई है कि कपाल बन्द होने पर छ: महीने देवपूजा तथा छ: माह मानव पूजा के लिये मन्दिर के द्वार खुले रहते हैं। वृहद् नारदपुराण में इसका उल्लेख है -
लभन्ते दर्शनं पुण्यं, पापकर्म विवर्जिता
ण्मासे देवते: पूज्या, षण्मासे मानवे।़तथा
लम्बे कालखण्ड तक इस क्षेत्र के चारों तीर्थों-बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री एवं यमुनोत्री के मन्दिरों की व्यवस्था संरक्षक के रूप में टिहरी नरेश देखते रहे हैं। बसन्त पंचमी के अवसर पर टिहरी दरबार (नरेन्द्र नगर) में रावल (मुख्य पुजारी) की जन्म कुण्डली को ध्यान में रखकर दिशाप्रस्थान तथा कपाट खुलने का मुहूर्त देखा जाता है। गंगोत्री व यमुनोत्री के कपाट सामान्य रूप से अक्षय तृतीया को ही खुलते हैं। कपाट खुलते समय टिहरी नरेश द्वारा रावल का तिलक किया जाता है, इसे तिलपात्र अभिषेक कहा जाता है। मन्दिर में जलने वाले ज्योति स्तम्भ निमित्त तेल की पिराई भी समारोहपूर्वक टिहरी नरेश के यहां से ही की जाती है।
ऐतिहासक यात्रा
पौराणिक काल में तीर्थाटन के लिये पैदल यात्रा की परम्परा थी। आद्यशंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ सदृश अनेक सन्त इन्हीं दुर्गम मार्गों से पैदल चलकर हिमालय आये। यातायात साधनों के प्रचलन से पैदल यात्रा की यह विधा धीरे-धीरे लुप्त होती गई। पैदल यात्रा को आधार मानकर ही वर्तमान परिवहन मार्गों का निर्माण हुआ है। पहले इस सम्पूर्ण मार्ग में चट्टी व्यवस्थाएं थीं। हरिद्वार से जहां एक ओर देवप्रयाग होकर केदारनाथ व बद्रीनाथ तक चट्टियों की श्रृंखला थी, वहीं दूसरी ओर हरिद्वार, देहरादून, मसूरी होकर धरासू तथा यमुनोत्री, गंगोत्री तक फैले पड़ाव स्थलों यात्रियों को पैदल मार्ग पर सब प्रकार की सुविधाएं प्रदान करते थे। बद्रीनाथ से कर्णप्रयाग लौटकर वहां से रामनगर की ओर मार्ग जाता था, इसमें आदिबद्री, भिकियासैंण, कोट आदि प्रमुख चटिटयां थीं। इस प्रकार सैकड़ों चटिटयां सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को पर्यटन उद्योग से भी जोड़ती थीं। तीर्थयात्रा का पारम्परिक क्रम यमुनोत्री से प्रारम्भ होकर गंगोत्री, केदारनाथ तथा अन्त में बद्रीनाथ है। यमुनोत्री तथा केदारनाथ के मोटर मार्ग से दूर होने के कारण अभी भी पैदल यात्रा ही करनी होती है। इससे यात्रा का वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है तथा यहां के नैसर्गिक सौन्दर्य को निकट से देखने व अनुभव करने का अवसर भी प्राप्त होता है।
गत वर्ष 10 लाख देशी-विदेशी पर्यटक यहां आये। देहरादून सहित यात्रा मार्गों पर 50 से अधिक विश्रामगृह बद्री-केदार मंदिर समिति द्वारा स्थापित किये गये हैं। मन्दिर समिति को प्राप्त धन का उपयोग जनसेवा के उपक्रमों में भी किया जाता है, जिनमें संस्कृत विद्यालयों का सहयोग, हिन्दी-भाषी शिक्षण संस्थानों की सहायता, नि:शुल्क भोजनालय आदि प्रमुख हैं। केदारनाथ में मन्दिर समिति का एक औषधालय भी है।
बद्रीनाथ से आने वाली अलकनन्दा तथा गंगोत्री से आ रही भागीरथी दोनों का संगम स्थल है - देवप्रयाग।यहीं इस संयुक्त धारा को गंगा नाम मिला है। पंचप्रयागों का प्रवेश द्वार, यह एक प्रमुख संगमतीर्थ है तथा मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम के भव्य 2100 वर्ष पुराने मन्दिर से यह नगरी सुशोभित है। बद्रीनाथ के तीर्थपुरोहितों का यह पैतृक स्थान भी है।
सिर्फ पर्यटन नहीं
वर्तमान में पर्यटन के बढ़ते आयाम के साथ तीर्थाटन की आत्मा भी जीवन्त बनी रहे, इसकी सजगता चाहिये। पर्यटन के साथ पनप रहा पाश्चात्य अन्धानुकरण हिमालय के वातावरण के लिये घातक सिद्ध होगा। प्रदूषण के कारण बिगड़ते पर्यावरण तथा मानव के विपरीत व्यवहार के कारण हिमखण्ड (ग्लेशियर) सिमटते जा रहे हैं, गंगा समेत अनेक नदियों का जल कम हो रहा है। बाँध परियोजनाओं ने भी जल की अविरलता तथा निर्मलता को प्रभावित किया है। विकास के नाम पर विकार न आये, इसका ध्यान रखना भी आवश्यक है। यहां के स्थानीय उत्पादनों का लोप होकर विदेशी पदार्थों का प्रवेश भी एक अच्छा लक्षण नहीं है।
सम्पूर्ण हिमालय तीर्थक्षेत्र है। यहां शताब्दियों से व्यक्ति आध्यात्मिक पिपासा को शान्त करने तथा तीर्थाटन के उद्देश्य से आता है। दक्षिण के कालड़ी से चलकर आद्य शंकराचार्य यहां आये, स्वामी विवेकानन्द ने यहां प्रवास किया, स्वामी रामतीर्थ की तो यह कर्मस्थली ही रही, वे बार-बार यहां आये। यही भिलंगना में उन्होंने जलसमाधि ली। यहां के तीर्थ, यहां का नैसर्गिक सौन्दर्य, स्वच्छ वातावरण इस देवभूमि की अमूल्य सम्पदा है।